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श्रावकाचार - सारोद्वार
दानध्यानाध्ययनस्नानतपोजाप्यदेवपूजादि ।
भस्मनि हुतमिव सकलं निर्दयहृदयस्य विफलं स्यात् ॥ ९८
नयनविहीनं वदनं देहं जीवेन वर्जितं यद्वत् । करुणारहितं तद्वन्न शोभते धर्म-कर्मापि ॥९९ मौनदान क्षमाशील परीषहजयादिकम् । तमोनृत्यमिव व्यर्थमदयालोनं संशयः ॥ १००
न्यायकुल स्थितिपालनगुरुसेवन सद्य शोज्र्ज्जनगुणाद्याः । तुषखण्डनमिव निखिला निर्दयमनसः प्रजायन्ते ॥ १०१
पङ्गस्तुङ्गे (शिखरि ] शिखरे धावमानेऽपि गृह्णन् वृक्षस्योच्चैः फलमविकलं वामनश्चारुगानम् । Mast विसृमररसं नृत्यमन्धोऽपि पश्यन् दृष्टो लोके न पुनरदयालिङ्गिनः कापि धर्मः ॥ १०२ जन्मी च्युतश्चेतनया तपाधनः क्षमामृते नीति विवर्जितो नृपः ।
श्रिया विहीनो न यथा गृहस्थितो विभाति धर्मो न तथा दयां विना ॥ १०३
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सुखं वा दुःखं वा विदधति परे यत्तनुभृतस्तदेव स्यात्तेषामधिकमिह वाऽमुत्र जनने । इति ज्ञात्वेच्छन्तः स्वहितमहितोत्पादकमलं वितन्वत्यन्येषां क्वचिदपि न किञ्चित् कृतधियः ॥ १०४ आत्मनः प्रतिकूलं यत्परेषां न समाचरेत् । तद्धर्मस्येति धर्मज्ञाः प्रथमं लिङ्गमभ्यधुः ॥ १०५
ऊर्जस्वल राज्य संभव नहीं, उसी प्रकार करुणाके बिना इस संसार में सुकृत (धर्म) संभव नहीं है ||१७|| दया - रहित हृदयवाले पुरुषका दान, ध्यान, अध्ययन, स्नान, तप, जाप, और देवपूजनादि सभी कुछ उसी प्रकार फलसे रहित है, जैसे कि भस्ममें हवन करना व्यर्थ होता है ||१८|| जैसे नेत्रोंके बिना मुख, जीवसे रहित शरीर शोभा नहीं पाता है, उसी प्रकार करुणासे रहित धर्म-कर्म भी शोभा नहीं पाता है ||१९|| दयासे रहित पुरुषके मौन, दान, क्षमा, शील, और परीषहों को जीतना आदि सभी धर्मकार्य अन्धकारमें नृत्य करने के समान व्यर्थ होते हैं इसमें कोई संशय नहीं है ॥ १००॥ दया - रहित मनुष्य के न्याय, कुल स्थितिका पालन, गुरु-सेवा, प्रशस्त यशोऽर्जन, आदि जितने सद्-गुण हैं, वे सभी तुषके कूटने के समान व्यर्थ ( फल- रहित ) होते हैं || १०१ || लोकमें पङ्गु मनुष्य कदाचित् अति उन्नत पर्वतके शिखरपर दौड़ता हुआ देखा जा सकता है, वामन पुरुष बहुत ऊँचे वृक्षके फलको विना किसी कठिनाईके ग्रहण करता हुआ देखा जा सकता है, बधिर पुरुष सुन्दर गानको सुनता हुआ देखा जा सकता है, और अन्ध पुरुष रस- प्रसारवाले नृत्यको देखता हुआ देखा जा सकता है, किन्तु अदयासे आलिङ्गित अर्थात् दया-रहित धर्म कभी भी नहीं देखा गया है । भावार्थ - भले ही उक्त असम्भव कार्य संभव हो जावें पर दया - रहित धर्म हो ही नहीं. सकता ॥१०२॥ जैसे प्राणी चेतनाके विना शोभा नहीं पाता है, क्षमाके विना तपस्वी साधु शोभा नहीं पाता है, नीति रहित राजा शोभा नहीं पाता है, और धन-लक्ष्मी के विना गृहस्थ जैसे शोभा नहीं पाता है, उसी प्रकार दयाके बिना धर्म शोभा नहीं पाता है ॥१०३॥
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जो प्राणी इस लोक में दूसरोंको सुख या दुःख देते हैं, वही सुख या दुःख इस लोक या परलोकमें उनको कई गुणा अधिक प्राप्त होता है । ऐसा जानकर अपने हितको चाहने वाले बुद्धिमान् मनुष्य दूसरोंको अहित उपादक कुछ भी कार्य कभी भी कहीं नहीं करते हैं || १०४॥ जो कार्य अपने लिए प्रतिकूल हो, वह दूसरोंके लिए नहीं आचरण करना चाहिए, यह धर्मका प्रथम लिङ्ग (चिह्न) धर्मके ज्ञाता पुरुषोंने कहा है || १०५ || जिसके दयासे युक्त चित्त में प्रतिदिन अद्भुत श्रेष्ठ धर्म
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