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________________ २७० श्रावकाचार-संग्रह निर्मलेः सर्ववित् सार्वः परमः परमेश्वरः । परंज्योतिर्जगद्धर्ता शास्ताऽप्तः परिगीयते ॥८८ उक्तं च-अनारमार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पन्मुिरजः किमपेक्षते ॥८९ ध्यातव्योऽयं सदा चित्ते पूजनीयोऽयमेव च । निषेव्योऽयं महाभक्तया संसारभयभीरुभिः ॥९० ये कलत्राक्षसूत्रास्त्ररागद्वेषविसंस्थुलाः । क्रोधाविष्कृतचेतस्काः न ते बत) देवापहाः ॥९१ अपारासारसंसारसागरे पततां नृणाम् । धारणाद् धर्म इत्युक्तो व्यक्तं मुक्तिसुखप्रदः ॥९२ क्षमादिदशभेदेन भिन्नात्मा भुक्तिमुक्तिदः । जिनोक्तः पालनीयोऽयं धर्मश्चेदस्ति चेतना ॥९३ उक्तंच-धर्मः सेव्य. क्षान्तिदुत्वमृजुतात्र शौचमथ सत्यम् । आकिश्चन्यं ब्रह्मत्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥९४ मुक्ति कन्दलयन् भवं विदलयत् ज्ञानं समुल्लासयन् पावित्र्यं जनयन् गुणान् प्रगुणयन्पापं समुन्मूलयन् सौख्यं पल्लवयन धियं किशलयन्नानन्दमुत्पादयन् केषां नैष हितङ्करस्त्रिभुवने धर्मो दयालिङ्गितः॥१५ मनुष्यत्वमिदं सारं भवेषु निखिलेष्वपि । पुमर्थस्तत्र तत्रापि धर्मस्तत्र दयापरः ॥९६ दिनं दिनकरच्युतं सरसिजं सरोजितं सुतेन रहितं कुलं धरणिमन्तरेणाधिपः । नरेश्वरमृते क्वचिद्भवति राज्यमूर्जस्वलं विना न करुणां पुनः सुकृतमत्र संभाव्यते ॥९७ ईश्वर देव है ।।८६-८७।। वहो सर्वदोष विमुक्त वोतरागो देव निर्मल, सर्ववित् (सर्वज्ञ) सार्व (सर्वहितकारी, परम, परमेश्वर, परंज्योति, जगद्-भर्ता, शास्ता और आप्त कहा जाता है ।।८८॥ कहा भी है-वह वीतरागी शास्ता रागके विना ही दूसरोंके लिए सच्चे धर्मका हितकारी उपदेश देता है । बजानेवालेके हाथके स्पर्शसे बजता हुआ मृदंग क्या अपेक्षा करता है ।।८९॥ इसलिए संसारके भयसे डरनेवाले भव्यजीवोंको सदा ही अपने मनमें उक्त स्वरूपवाले परमात्माका ध्यान करना चाहिए, उसे हो पूजना चाहिये और महाभक्तिसे उसीकी सेवा करनी चाहिए ॥९॥ जो स्त्री, अक्षसूत्र, अस्त्र-शस्त्र, राग और द्वषोंसे संयुक्त है और जिनका चित्त क्रोधसे व्याप्त है, वे सत्यार्थदेव नहीं हैं, प्रत्युत देवत्व-रहित कुदेव हैं ॥९१।।। इस अपार असार संसार-सागरमें पड़े हुए प्राणियोंको धारण करता है, उनकी रक्षा करता है, वही धर्म कहा गया है और व्यक्त रूपसे वही मोक्षके सुखका देने वाला है ॥९२।। वह धर्म उत्तम क्षमा आदि दश भेदसे भिन्न-भिन्न स्वरूप वाला है, स्वर्ग और मोक्षको देने वाला है, यदि मनुष्य में चेतना है तो उसे जिन-भाषित यह धर्म पालना चाहिए ।।१३।। - कहा भी है-क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शौच, सत्य, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, त्याग, तप और संयम यह दश प्रकारका धर्म इस लोकमें सेवन करनेके योग्य हैं ||९४॥ मुक्तिको प्राप्त करनेवाला, संसारका विनाशक, ज्ञानको उल्लसित करनेवाला, पवित्रताको पैदा करनेवाला गुणोंको प्रगुणित करनेवाला, पापको समुन्मीलित करनेवाला, सुखको पल्लवित करनेवाला, लक्ष्मीको विकसित करनेवाला, और आनन्दको उत्पन्न करनेवाला दयासे आलिंगित यह धर्म इस त्रिमुवनमें किनका हित करनेवाला नहीं है । अर्थात् सभीका हितकारी है ॥९५।। समस्त ही भवों (पर्यायों) में यह मनुष्यत्व ही सार है, मनुष्यभवमें भी पुरुषार्थ ही प्रधान है और पुरुषार्थमें भी दयामयो धर्म परम प्रधान है ९६॥ सूर्यके विना दिन संभव नहीं, सरोवरके विना सरोज संभव नहीं, पुत्रसे रहित कुल संभव नहीं, भूमिके विना वृक्ष संभव नहीं, राजाके विना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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