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________________ श्रावकाचार-सारोबार २६५ कृष्णागुरुस्फुरद-धूपैयाप्तं दृष्ट्वा नभस्तलम् । यत्राकाण्डेऽपि जायन्ते केकिनो मेघशङ्किनः ॥२५ अधःकृतं मया भोगिपुरमप्यात्मशोभया । मरुच्चलध्वजव्याजसत्करैर्नृत्यतीव यत् ॥२६ हरिन्मणिमये गेहप्राङ्गणे प्रतिबिम्बितैः । नक्षत्रैर्यत्र पुष्पाणां भ्रान्तिमापुनिशि स्त्रियः ॥२७ यत्राभ्रंलिहगेहानस्थितानां योषितां मुखैः । जनैरुद्वदनैर्नक्तं सृष्टिश्चन्द्रमयोक्ष्यते ॥२८ यत्र स्फटिकभूमोषु प्रतिबिम्बानि योषिताम् । नागलोकवधूभ्रान्ति तन्वन्ति पुरवासिनाम् ॥२९ यत्रारुणाश्मभित्तीनां कान्त्या प्रत्यूषशङ्कया। मोदन्ते कोककामिन्यो दीधिकासु निशास्वपि ॥३० तमालश्यामला गजाजताशेषजन्तवः । चारुगन्धवहा भान्ति मेघाश्वमतङ्गजाः ॥३१ कलिकोपक्रमो यत्र श्रूयते वनशाखिषु । बन्धुजीवविघातश्च ग्रीष्मावसरकेलिषु ॥३२ यत्र प्रामाणिके जातिदोपाश्च छलभाषणम् । कलिवने गुणच्छेदो मुक्ताहारे न नागरे ॥३३ सरोगा राजहंसाः स्युर्मदान्धा यत्र हस्तिनः । कलावद्वैरिणः कोका न तु लोकाः कदाचन ॥३४ वियोगो यत्र वृक्षेषु मिथुनेषु न कामिनाम् । कठिनत्वं कुचेष्वेव मानसेषु न योषिताम् ॥३५ नमन्नृपशिरोरत्नकरस्फारपदद्युतिः । जितारिश्रेणिकः सोऽत्र श्रेणिकोऽभून्महीपतिः ॥३६ धूप-धूम्रोंसे व्याप्त गगनतलको देखकर जहाँपर असमयमें भी मयूर मेघकी शङ्कावाले हो जाते हैं ॥२५।। मैंने अपनी शोभासे भोगिपुर (नागराजके नगर) को भी अधःकृत कर दिया है, मानों इसी कारण वह नगर पवनसे चंचल ध्वजाओंके बहाने उत्तम हाथोंके द्वारा नृत्य सा करता हुआ प्रतीत होता है ।।२६।। जहाँपर रात्रिके समय स्त्रियां हरिन्मणिमयी घरके आंगनमें प्रतिबिम्बित नक्षत्रोंके द्वारा पुष्पोंकी भ्रान्तिको प्राप्त होती हैं ॥२७।। जहाँपर रात्रिके समय गगनचुम्बी भवनोंके अग्रभागपर बैठी हुई स्त्रियोंके मुखोंसे भूमिपर खड़े ऊपरकी ओर मुख किये लोगोंको सारी सृष्टि चन्द्रमयी-सी दिखाई देती है ।।२८।। जहाँपर स्फटिकमयी भूमियोंपर स्त्रियोंके प्रतिबिम्ब नगर-निवासियोंको नागलोककी स्त्रियोंका भ्रम उत्पन्न करते हैं ।।२९।। जहाँपर अरुणवर्णके पाषाणसे निर्मित भित्तियोंकी कान्तिसे उषाकालकी शंकासे रात्रिमें भी वापिकाओंमें बैठी कोक-कामिनियां (चकवियाँ) पति-मिलनकी आशासे हर्षित होने लगती हैं ।।३०।। तमालपत्रके समान श्यामवर्णवाली अपनी गर्जनासे समस्त जन्तुओंको तर्जना देनेवाली सुन्दर गन्धवह (वायु) मेघ, अश्व और हाथीके समान शोभाको प्राप्त होती है ।।३१।। जहाँपर कलि (कलह) और कोपका क्रम और अर्थान्तरमें कलिकाओंका उपक्रम केवल वनवृक्षों में सुना जाता है । बन्धुजीव (नामक पुष्प) का विघात केवल ग्रीष्मकालीन क्रीड़ाओंमें ही सुना जाता है अन्यथा कोई भी अपने बन्धुओंका एवं जीवोंका विघात नहीं करता था ॥३२॥ जहाँपर प्रमाणवादी लोगोंमें ही जाति-दोष और छलका भाषण सुना जाता है, अन्यथा न किसी व्यक्तिमें जाति-दोष था, और न छलपूर्ण कथन ही था। कांदलके वनमें ही गुणों (सूत्रों-रेशों) का उच्छेद देखा जाता था, या मुक्ताहारमें। नगरनिवासियों में गुणोंका उच्छेद नहीं था ॥३३॥ जहाँपर राजहंस ही सरोग (सरोवर-गत) थे, अन्य कोई रोग-युक्त नहीं था, जहाँपर हाथी ही मदान्ध थे और कोई मदान्ध नहीं था। जहाँपर कोकपक्षी ही कलावान् (चन्द्र) के वैरी थे, और कोई लोग कभी भी कलावालोंके वैरी नहीं थे ।।३४|| वियोग (वि = पक्षियोंका योग) जहां केवल वृक्षोंमें था, कामी जनोंके युगलोंमें इष्टवियोग नहीं था, काठिन्य केवल स्त्रियोंके स्तनोंमें ही था, स्त्रियोंके हृदयोंमें कठोरपना नहीं था ।।३५।। इस राजगृह नगरमें श्रेणिक राजा था, जिसने शत्रुओंकी श्रेणियोंको जीत लिया था और जिसके चरण नमस्कार करते हुए राजाओंके सिरपरके मुकुटोंके रत्नोंकी किरणोंसे स्फुरायमान ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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