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________________ २६६ श्रावकाचार-संग्रह पृथिव्यां शरणं शेषो यथाऽभूभारघारणात् । तथोर्जस्विबलोपेतो यबाहुरपि रक्षणात् ॥३७ यस्माद्विस्मापितोनिद्रकल्पद्रो नमञ्जसा । मनोरथाधिकं लब्ध्वा नार्थिनः पुनरथिनः ॥३८ गम्भीरोऽपि सदाचारुमणीनामाकरोऽपि सन् । जडाधारितया धत्ते न साम्यं यस्य सागरः ॥३९ यः शङ्करोऽपि नो जिह्मद्विजिह्वपरिवारितः । यो राजापि क्वचिन्नैव कलङ्काकुलविग्रहः ॥४० मन्थाचलेन दुग्धाब्धौ पद्मषु रविरश्मिभिः । पीडिता कमला मन्ये यद्भुजे स्थिरतामगात् ॥४१ शृङ्गारसारसर्वस्वसरसोसारसेक्षणा । सतीमतल्लिका तस्य चेलना समभूद्वधूः ॥४२ इमामेतादृशों चक्रे जराकम्प्रः कथं विधिः । इत्याश्चर्यादिवाभूवनिनिमेषाः सुराङ्गनाः ॥४३ वाणीपाणिविपश्चिश्रीगर्वसर्वस्वहारिणीम् । यद्वाणों कोकिलाऽऽकर्ण्य शङ्के कायं ह्रियाऽगमत् ॥४४ कृष्णकेशचयव्याजादायातः स विधुन्तुदः । यदीयप्रस्फुरद्वक्त्रविधुग्रसनलीलया ॥४५ ।। भक्त्वा भङ्क्त्वाऽऽत्मनो बिम्बं सृजत्वविरतं शशी । तथाप्येति न सादृश्यं यदीयवदनेन्दुना ॥४६ लसद्भालं महीपालमन्यदा तं सदःस्थितम् । पुष्पहस्तः समागत्य वनपालो व्यजिज्ञपत् ॥४७ वसुन्धराभराधारस्तम्भभूतभुजद्वय । मात्तण्डमण्डलोद्दण्डप्रताप शृणु भूपते ॥४८ रहते थे ॥३६।। जैसे पृथ्वीका भार धारण करनेसे शेषनाग पृथ्वीका शरण माना जाता है, उसी प्रकार इस राजाकी भुजा भी प्रजाकी रक्षा करनेसे ऊर्जस्व बलसे युक्त थी ॥३७।। आश्चर्यचकित किया है कल्पवृक्षको जिसने, ऐसे राजा श्रेणिकके द्वारा मनोरथसे भी अधिक दान पा करके याचक जन फिर किसी भी वस्तुके लिए किसीसे भी याचना करनेवाले नहीं रहे ॥३८॥ अति गम्भीर और सदा ही सुन्दर मणियोंका भण्डार भी सागर (रत्नाकर) जड (ड-लके श्लेषसे जल) को धारण करनेसे जिसकी समताको धारण नहीं करता है ।।३९।। जो शंकर (शंभु-सुख करनेवाला) होकर के भी कुटिल दो जिह्वावाले सॉं (साँपों और दुर्जनजनों) से घिरा हुआ नहीं था। और जो प्रजाको शान्ति देनेवाला चन्द्र होकरके भी कहींपर भी कलंकसे कलंकित शरीरवाला नहीं था ॥४०॥ क्षीर-सागरमें रहते समय मन्थाचलसे (किंवदन्तीके अनुसार सुमेरुसे मथे जानेके कारण) पीड़ित और कमलोंमें निवास करते समय सूर्यको तीक्ष्ण किरणोंसे पीडाको प्राप्त हुई लक्ष्मी जिस श्रेणिककी भुजामें आकर स्थिरताको प्राप्त हो गई थी, ऐसा मैं मानता हूँ ॥४१।।। सारभूत सर्वश्रेष्ठ शृंगारवाली, कमल-सदृश नेत्रवाली और सतियोंमें शिरोमणि ऐसी चेलना उसकी प्रिय रानी थी ॥४२॥ वृद्धावस्थासे कम्पित शरीरवाले विधाताने इस चेलनाको ऐसी परमसुन्दरी कैसे बना दिया ? मानों इस प्रकारके आश्चर्य से ही देवाङ्गनायें निनिमेष हो गई हैं। अर्थात् अपलक दृष्टिसे उसे देखते रह गई हैं ॥४३।। वीणाको हाथमें लेकर सुन्दरगान करती हुई सरस्वतीके भो गर्व सर्वस्वको अपहरण करनेवाली जिस चेलनाको मधुरवाणीको सुनकर कोयल लज्जासे काली हो गई है, ऐसी मैं शंका करता हूँ ॥४४॥ जिसके विकसित मुख चन्द्रको ग्रसन करनेकी लीलासे आया हुआ वह राहु मानों काले केशपाशके व्याजसे शिरपर स्थिर हो गया है ।।४५।। यदि चन्द्रमा अपने भीतरके कलंकको वार-वार छिन्न-भिन्न करके भी निरन्तर अपना सुन्दर बिम्ब बनावे, तो भी जिस वेलनाके मुखचन्द्रके साथ सादृश्यको प्राप्त नहीं हो सकता है ॥४६॥ ___ किसी एक दिन सभामें विराजमान सुन्दर भाल (मस्तक) वाले महीपाल श्रेणिकसे पुष्पोंको हाथमें धारण किये हुए वनपालने आकर यह कहा-॥४७॥ हे पृथ्वी-भारके आधार-भृत दो स्तम्भ-स्वरूप भुजा युगलके धारक, हे सूर्य-मण्डलसे भी प्रचण्ड प्रतापशालिन् राजन्, सुनिये ।।४८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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