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________________ २६४ श्रावकाचार-संग्रह अनेकान्तमताकाशे येन चन्द्रायितं क्रमात् । वीरसेनो हतैना नो मानसे रमतां सदा ॥१२ गम्भीरमधुरोद्गारा यगिरास्पूतयः सताम् । शं समुत्पादयन्त्यत्र देवनन्दी स वन्द्यते ॥१३ पूर्वाचार्यप्रणीतानि श्रावकाध्ययनान्यलम् । दृष्टवाऽहं श्रावकाचारं करिष्ये मुक्तिहेतवे ॥१४ जम्बूद्वीपे प्रसिद्धेऽस्मिन् जम्बूवृक्षोपलक्षिते । अस्ति तद्धारतं नाम क्षेत्र पाणं सुखश्रियाम् ॥१५ सुधाभुजोऽपि यत्र स्युर्जन्मने स्पृहयालयः । सधियामास्पदं तत्र देशोऽस्ति मगधाभिधः ॥१६ सालयः शालयो यत्र नमन्ति फलभारतः । पयः पातुमिवाम्भोजकिञ्जल्कोत्करवासितम् ॥१७ राजीवं राजते यस्मिन्नन्तःस्थितमधुवतम् । मन्ये तद्देशपाया: पायं कज्जलभस्मनः ॥१८ भोगोन्द्ररुपभुक्तापि सती मातङ्गसड़ता। पवित्रापि पयोजाक्षी यत्र भाति सरित्तती ॥१९ यत्र सगेषु सद्-भोज्यं भुक्त्वा पीत्वाऽबु शीतलम् । वेश्मानीवाध्वनि ध्वस्तश्रमः शेतेऽध्वगः सुखम्॥२० गोपालबालिकागानश्रवणालसमानसाः । ल पदङ्गा मृगा भान्ति यत्र चित्रगता इव ॥२१ अस्ति तत्र मरुद्रङ्ग लक्ष्मी-लुण्टाकवैभवम् । राजद्राजगृहाकोणं पुरं राजगृहं परम् ॥२२ सदम्बरस्फुरच्छोकः पयोधरकृतस्थितिः । कान्तोरःस्थलसादृश्यं यस्य शालो दधात्यलम् ॥२३ धम्यंकर्मविनिर्माणध्वस्तव्याधिसमुच्चयाः । यस्मिन्नशेषसंसारसारसौख्यभुजः प्रजाः ॥२४ सबके आनन्दके लिए होवें ॥११॥ अनेकान्त सिद्धान्तरूप आकाशमें जिसने क्रमसे वृद्धिगत होते हुए चन्द्रके समान आचरण किया, वे पाप-विनाशक श्री वीरसेनाचार्य हमारे मनमें सदा रमे रहें ॥१२॥ जिनको गम्भीर, मधुर उद्गारवाली पवित्रवाणी इस संसारमें सज्जनको सुख उत्पन्न करती है, उन देवनन्दीकी में वन्दना करता हूँ ॥१३॥ पूर्वाचार्य-प्रणीत श्रावकाचार-सम्बन्धी शास्त्रोंको भलभांतिसे देखकर मैं मुक्ति-प्राप्तिके लिए श्रावकाचारकी रचना करूँगा ॥१४॥ जम्बू वृक्षसे उपलक्षित इस प्रसिद्ध जम्बूद्वीपमें सुखसमृद्धिका पात्र भारतवर्ष नामका क्षेत्र है ॥१५॥ अमृत-भोजी देवगण भी जहाँ पर जन्म लेनेके लिए लालायित रहते हैं, ऐसे उस क्षेत्रमें सत्-लक्ष्मीका स्थान एक मगध नामका देश है ।।१६।। जहाँ पर कमलके केशर-परागके समूहसे सुवासित जलको मानों पीनेके लिए ही भ्रमर-युक्त शालिधान्य फलके भारसे नम्रीभूत हो रहा है ॥१७॥ मधुव्रती भ्रमर जिसके अन्तः स्थित है, ऐसा कमल जहाँपर शोभायमान है, उसे मैं ऐसा मानता हूँ मानों वह उस देशको लक्ष्मीके कज्जलभस्मका पात्र ही है ॥१८॥ जहां पर नदियोंकी पंक्ति भोगीन्द्रों (सर्पो और भोगीजनों) से उपभुक्त होनेपर भी सती, मातंग (हाथी और चण्डाल) से संगत होनेपर भी पवित्र और कमलरूप नेत्रवाली सुशोभित है ।।१९।। जहाँके अन्नक्षेत्रोंमें उत्तम भोजन करके और शीतल जल पी करके यात्रीजन मार्गमें भी अपने घरके समान श्रमरहित होकर सूखसे सोते हैं ॥२०॥ जिस देशमें गौपालकोंकी बालिकाओंके गानोंको सुननेसे आलसयुक्त मनवाले अनेक वर्ण के हरिण चित्र-लिखितके समान शोभाको प्राप्त हो रहे हैं ।।२१।। उस मगध देशमें देव-लक्ष्मीके वैभवको लूटनेवाला, शोभा-सम्पन्न राज-भवनोंसे व्याप्त राजगृह नामका नगर है ॥२२॥ जिस नगरका कोट उत्तम वस्त्रसे स्फुरायमान शोभासे युक्त, पयोधर (मेघ और स्तन) कृत स्थितिवाला, कान्ताके वक्षस्थलकी सदृशताको अच्छी रीतिसे धारण करता है ॥२३॥ जिस नगरकी प्रजा धर्मकार्योंके करनेसे, व्याधियोंके समूहका विनाश करनेसे नीरोग और समस्त संसारके सारभूत सुखोंको भोगनेवाली है ॥२४।। कृष्णागुरुसे युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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