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________________ श्रीपद्मनन्दि-विरचितः श्रावकाचारसारोद्धारः सुसंवेदन-सुव्यक्त-महिमानमनश्वरम् । परमात्मानमाद्यन्तविमुक्तं चिन्मयं नुमः ॥१ श्रीनाभेयो जिनो भूयाद् भूयसे श्रेयसे स वः । जगज्ज्ञानजले यस्य दधाति कमलाकृतिम् ॥२ वन्दारुत्रिदशाधीशशिरोमणिविभाचितम् । यदनिद्वितयं सोऽस्तु सम्पदे शशिलाञ्छनः ॥३ दुर्जयो येन निजिज्ञे विनाप्यस्त्रेण मन्मथः । शान्तिनाथः स नः पायावपायाज्ज्ञानलोचनः ॥४ यद्वाक्यकेलयो देहि-सन्देहध्वान्तहेलयः । स नेमिस्त्रिजगत्त्राणनिष्णः पुष्णातु वो मुदम् ॥५ अनेकान्तमयं यस्य मतं मतिमतां मतम् । सन्मतिः सन्मति कुर्यात्सन्मतिर्वो जिनेश्वरः ॥६ यत्प्रसादान्न मोमूत्ति मर्त्यस्तत्त्वार्थविस्तरे। तोष्टवीमि गणेशानं तमहं गौतमं मुनिम् ॥७ जिनराजमुखाम्भोजराजहंसी सरस्वती। कुन्देन्दुविशदा नित्यं मानसे रमतां मम ॥८ क्षीणकर्माणमद्राक्षीद्यः स्वयं केवलक्षणम् । नमस्यामि प्रशस्यं तं कुन्दकुन्दाभिषं मुनिम् ॥९ वज्रपातायितं वाक्यैः शाक्यभूधरमूर्द्धनि । यस्य शस्यो न केषां स्यादकलङ्काभिधो मुनिः ॥१० निःप्रभाः पुरतो यस्य खद्योता इव वादिनः । स श्रीसमन्तभद्रोऽस्तु मुदे वो रविसन्निभः ११ उत्तम ज्ञानके द्वारा जिसकी महिमा उत्कृष्ट रूपसे प्रकट है, जो अविनश्वर है, आदि-अन्तसे रहित है ऐसे चिद्-स्वरूप परमात्माको नमस्कार करते हैं ||१|| श्री नाभिनन्दन ऋषभदेव जिन, तुम सबके भर-पूर कल्याणके लिए होवें, जिनके ज्ञानरूप जलमें यह जगत् कमलकी आकृतिको धारण करता है, अर्थात् प्रतिबिम्बित होता है ॥२॥ वन्दना करनेवाले देवलोकके स्वामियोंके शिरोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंकी प्रभासे जिनके चरण-युगल अचित हैं, ऐसे चन्द्र-चिन्ह विभूषित श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र सबकी सम्पदाके लिए होवें ॥३॥ जिन्होंने अस्त्र-शस्त्रके बिना ही दुर्जय कामदेवको जीत लिया है ऐसे वे ज्ञानलोचन श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हमारी अपायोंसे रक्षा करें ॥४॥ जिनकी वाक्यावलो जीवोंके सन्देहरूप अन्धकारको विनष्ट करती है और जो जगत्के संरक्षणमें निष्णात हैं ऐसे वे श्री नेमिजिनेश्वर तुम्हारे हर्षको पुष्ट करें ॥५॥ जिनका अनेकान्तमय सिद्धान्त बुद्धिमानोंको परममान्य है ऐसे वे सन्मति जिनेश्वर तुम्हारी सन्मति (सुबुद्धि) को और भी अधिक सन्मति रूप करें ॥६॥ जिनके प्रसादसे मनुष्य तत्त्वार्थके विस्तार करनेमें मूच्छित नहीं होता है, अर्थात और अधिक तीक्ष्ण बुद्धिवाला हो जाता है ऐसे उन गणके स्वामी गौतम मुनिकी मैं स्तुति करता हूँ ॥७॥ श्री जिनराजके मुखकमलको राजहंसी सरस्वती देवी जो कुन्द पुष्प और चन्द्रसे भी विशद स्वरूपवाली है, वह मेरे हृदयमें सदा काल रमण करे ॥८॥ जिन्होंने (इस कलिकाल में भो) घातिकर्म-विनाशक और केवलज्ञान नेत्रके धारक श्री सीमन्धर स्वामीको स्वयं साक्षात् देखा, उन प्रशंसनीय कुन्दकुन्द नामक मुनिराजको मैं नमस्कार करता हूँ॥९॥ जिनके वाक्यों द्वारा शाक्य (बौद्ध) रूप पर्वतके शिखर पर वज्रपात किया गया, वे अकलंक नामके मुनिराज किनके प्रशंसनीय नहीं हैं ? अर्थात् सभीके प्रशंसनीय हैं ॥१०॥ जिनके बाने खद्योतके समान भी वादिजन निष्प्रभ हो जाते थे, वे सूर्य-सद्दश तेजस्वी श्रीसमन्तभद्रस्वामी तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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