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२६.
श्रावकाचार-संग्रह अतः कारणतो भव्यैः सम्यक्त्वाधार इष्यते । जीवो यस्य बलाधानान्मोक्षसौख्यं समेति च ॥५१८
श्रद्धानं यस्य चित्तं वहति निरुपमं सर्वथा भावशुद्धया तस्य श्री निष्कलङ्का निवसति भवनेऽनेकचित्रामरम्ये। विद्वद्गोष्ठी-विचित्रे गजतुरगरथासंख्य पादातिवर्गे दासीदासप्रकीर्णे प्रमुदितस्वजने ध्वस्तदोषारिचक्रे ॥५१९ विद्या तेजः कोतिरोजः प्रतापो लक्ष्मी सौख्यं नीतिमार्गो यशश्च । राज्यं वीयं बुद्धिगे (?) स्थानमाभा पूजा वृद्धिर्जायते दर्शनाच्च ॥५२० स्थितिः प्रभावो बलमातपत्रमावासराजी विजयो जयश्च । चक्रेश्वरत्वं सुरराजलीला संजायते दर्शनसंस्थितस्य ॥५२१ सम्यक्त्वमेव कुरुते जगदाधिपत्यं दुःखं निषेधयति नीचकुलेन सार्धम् । स्त्रीजन्म नारकभवं च नपुंसकत्वं तिर्यग्गति वपुरनुत्तममल्पमायुः ॥५२२ यस्य प्रभा कर्मकलङ्कमक्तं भव्यं विधत्ते जगदेकपूज्यम्।।
कल्याणकेडयं समवसतिस्थं गुणाष्टकाभीष्टतमं जिनेन्द्रम् ॥५२३ यद्यद्वस्तु समस्तं जगत्त्रये संस्थितं महद्रव्यम् । तत्तद्वस्तुविशेषं लभते श्रद्धापरो भव्यः ॥५२४ तथाहि-इह खलु जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र च मागधे देशे।
ललितपुरे ललितगिरौ तत्राभूत्कलगिरिकुम्भो ॥५२५ कोप और सद्धर्म ये दोनों अपने-अपने कार्य करनेमें अंकुश-रहित अर्थात् स्वतंत्र हैं ॥५१७॥ इसी कारणसे भव्य पुरुषोंने धर्मको सम्यक्त्वके आधारपर आश्रित कहा है, जिसके कि बलके आश्रयसे जीव मोक्षके सुखको प्राप्त करता है ॥५१८॥
जिसका चित्त सर्व प्रकारसे भाव-शुद्धिके साथ अनुपम श्रद्धानको धारणा करता है, उसके अनेक चित्रामोंसे रमणीय भवनमें निष्कलंक लक्ष्मो निवास करती है। वह भवन ऐसा प्राप्त होता है कि जहाँपर अनेक विषयोंके विद्वानोंकी गोष्ठी हो रही है, जो हाथी, घोड़े, रथ और असंख्य पदातिवर्ग (पैदल चलनेवाले सैनिक) से परिपूर्ण है, दासी-दासोंसे व्याप्त है, दोषरूप शत्रु-समूहसे रहित है और जहाँ सभी स्वजन प्रमोदको प्राप्त हैं अर्थात् सभीको प्रमोदका जनक है ।।५१९।। सम्यग्दशनके माहात्म्यस विद्या, तेज, कीर्ति, ओज, प्रताप, लक्ष्मो, सुख, नाति-मार्ग, सम्मान, यश, राज्य, वोर्य, बुद्धिमत्ता, स्थानलाभ, आभा, पूजा और वृद्धि प्राप्त हाती है ॥५२०॥ सम्यग्दर्शनमें सम्यक् प्रकारस स्थित पुरुषके स्थिति(दीर्घायु),प्रभाव, बल, एकछत्र राज्य, प्रासाद-श्रेणो, जय-विजय, चक्रेश्वरता (चक्रवर्तीपना) और दवेन्द्रोंकी विलासलीला प्राप्त होतो है ॥५२१।। सम्यक्त्व ही जीव को ससारका आधिपत्य (स्वामित्व) प्राप्त कराता है, और नीच कुलके साथ स्त्रियाम जन्म, नारकभव, नपुंसकता, तियंचगात, कुत्सित शरीर और अल्पायु-जनित दुःखोंका निषेध करता है। ।।५२२।। जिस सम्यक्त्वको प्रभा भव्य जीवको कम-कलंकसे विमुक्त कर देता है, जगत्में एक मात्र पूज्य बना दता है, पंच कल्याणकोंका पात्र करती है, समवशरणम विराजमान अरहन्त जिनेन्द्र बनाता है और अत्यन्त अभाष्ट सिद्धोंके आठ गुण प्राप्त कराती हे ॥५२३॥ अधिक क्या कहें-तीन जगत्म जा-जा महान् वस्तुएं हैं और जो-जो महान् द्रव्य है, उन-उन समस्त वस्तुावशेषोंको श्रद्धाम तत्पर भव्य जीव प्राप्त करता है ।।५२४॥ यथा--
इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रके मागधदेशके ललितपुरके समीपवर्ती ललितगिरिपर एक
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