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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २६१ तेन गजेन समस्ता जीवा विध्वंसिता मदान्धेन । पञ्चाननेन स करी विनाशितो वैरभावेन ॥५२६ हस्ती जगाम दुःसहकर्मविपाकेन पञ्चमं नरकम् । दशसागरोपमायुर्भुक्तं तत्रैव तेनाथ ॥५२७ स च निःसरितस्तस्माज्जातस्तत्रैव नाहले गोत्रोधनविरहितोऽतिदुःखी त्यक्तकुटुम्बोऽकल त्रश्च ॥५२८ तेनैकदा पुलिन्देन परिभ्रम्य महीतलम् । खानपानादिकं वस्त्र न प्राप्तं पापभागिना ॥५२९ यावत्प्रचलितो गेहं तावद्वासावकानने । लोकसम्बोधनाभिज्ञं स ददर्श मुनीश्वरम् ॥५३० सभां प्रविश्य शोभ्रेण स तं नत्वा तपोधनम् । पप्रच्छ दुःखहननं वाक्यं सौख्यमनोरमम् ।।५३१ स प्रोवाच रहस्यं तमवधिज्ञानलोचनः । अहो भिल्ल त्वमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं परिपालय ॥५३२ निःशङ्कितनिःकांक्षितनिविचिकित्सा विमूढदृष्टिश्च ।। संवरणस्थितिकरणप्रतिपत्तिविभावनाङ्गानि ॥५३३ एतैरष्टभिरङ्गैर्युक्त सम्यक्त्वमेति यः पुरुषः । स च दुःखी न कदाचित्तस्य स्वर्गापवर्गौ च ॥५३४ यत्किञ्चित्तन्मुनिप्रोक्तं व्रतं सम्यक्त्वपूर्वकम् । तत्सर्वं तेन भिल्लेन गृहीतं निश्चयात्मना ॥५३५ सम्यक्त्वं तेन चक्र निजहृदयगतं शुद्धमष्टाङ्गयुक्त तस्माल्लक्ष्मी प्रपेदे जिनचरणयुगं ध्यायता तत्र शैले। मृत्यौ पञ्चाक्षराणां पदमनुसरता कालयोगेन लब्धे दधे देवेन्द्रसम्पद्विहितसुर-वधूभोगभावोऽच्युते च ॥५३६ तत्रायुस्तेन बुभुजे द्वाविंशत्सागरोपमम् । पश्चात्कालेन च्युत्वाऽसौ साकेतां नगरी प्रति ॥५३७ कलगिरि नामका हाथो था ॥५२५॥ उस मदान्ध हाथोने उस पर्वतपर रहनेवाले समस्त जीवोंका विनाश कर दिया । पश्चात् वैरभावसे पंचानन सिंहने उस हाथीको मार दिया ॥५२६॥ वह हाथी मरकर दुःसह कर्म-विपाकसे पांचवें नरक गया और वहाँपर उसने दश सागरोपमकी आयु भोगी ॥५२७।। तदनन्तर वह हाथीका जीव नरकसे निकल कर उसी ललितपुर नगरमें नाहल गोत्रमें धन से रहित, कुटुम्बसे परित्यक्त, स्त्री-रहित, अत्यन्त दुःखी भील हुआ ।।५२८।। उस पाप-भागी भील ने एक बार सर्व महीतलपर परिभ्रमण करके भी वस्त्र और खान-पानादिक कुछ भी नहीं पाया ॥५२९।। जब वह भील घरको लौट रहा था, तब उसने वनमें संसारको सम्बोधन करनेमें कुशल एक मुनीश्वरको देखा ॥५३०।। उसने मुनीश्वरकी सभामें शीघ्र ही प्रवेश करके, उन तपोधनको नमस्कार करके दुःखोंका विनाशक और मनोहर सुखोंका करने वाला वाक्य पूछा ॥५३१।। तब अवधिज्ञानरूप नेत्रके धारक मुनिराजने धर्मका रहस्य उससे कहा-अहो भिल्ल, तुम अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनका पालन करो ॥५३२।। उस सम्यक्त्वके आठ अंग ये हैं-निःशंकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, संवरण (उपगृहन), स्थितिकरण, प्रतिपत्ति (वात्सल्य) और प्रभावना ॥५३३।। इन आठ अंगोंसे युक्त सम्यक्त्वका जो पुरुष प्राप्त होता है वह कभी भी दुःखी नहीं होता है और स्वर्ग-मोक्षको प्राप्त करता है ॥५३४॥ इस प्रकार उन मुनिराजने सम्यक्त्वके साथ जिस किसी भी व्रतको कहा, उस भोलने निश्चय स्वरूपसे उस सबको ग्रहण कर लिया ॥५३५।। तब उस भीलने आठ अंगोंसे युक्त शुद्ध सम्यक्त्वको अपने हृदयमें धारण किया और जिनदेवके चरणयुगलका ध्यान करते हए उसी पवंतपर उसके प्रभावस लक्ष्मीको प्राप्त किया। पूनः पंच परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका स्मरण करते हुए काल योगसे मरण होनेपर उसने अच्युत स्वर्गमें देवेन्द्रकी सम्पदासे भर-पूर, देवाङ्गनाओंके भोग करानेवाला इन्द्रपद धारण किया ॥५३६|| वहाँपर उसने बाईस सागरोपमकी आयु भोगी। पश्चात् काल करके वहाँसे च्युत होकर वह उस साकेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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