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________________ देतीचौतन-श्रावकाचार शोलवतपरिहरणं कुमार्गचलनं कुमित्रविश्वासः । कुत्सितनारीसेवा सरोषवचनं परव्यसनम् ॥५०६ व्यसनप्रमादविषयाः कषायः पञ्चेन्द्रियाणि शल्यानि। ___ मोहो रागद्वेषावविरतिमिथ्याविकाराणि ॥५०७ अव्रतमनियमकरणं गुरुनिन्दा दूषणं परद्रोहः। हिंसा तपःप्रसङ्गश्चारित्रध्वंसनं महापापम् ॥५०८ एतैः कलङ्कभावैर्जीवः संसारसागरे भ्रमति । लभते दुःखं घोरं प्राप्नोति च पुद्गलावर्तम् ॥५०९ एतेऽपि दोषनिवहाः प्रतिपाल्यन्ते यदोहविपरीताः । भव्येन शुद्धमनसा ततो भवेन्नाकसम्प्राप्तिः॥५१० सङ्गत्यागस्तपो वृत्तं परीषहजयस्तथा। त्रिगुप्तिः पञ्चसमितिरनुप्रेक्षाविचारणा ॥५११ ।। धर्मो दशप्रकारो वा चित्तशुद्धिगुणग्रहः । रत्नत्रयस्य सम्पत्तिः कायक्लेशश्च भावना ॥५१२ चारित्रं पञ्चधा ख्यातं शमः संयमधारणम् । सम्यक्त्वं सर्वसावधनिवृत्तिर्देववन्दना ॥५१३ रागद्वेषपरित्यागो ब्रह्मचर्य महावतम् । जिनप्रभावना नित्यं विधानं व्रतलक्षणम् ॥५१४ शुक्लध्यानं सदाचारो योगत्रयनिरोधनम् । एतेषां यस्य संयोगो मुक्तिस्तस्यैव जायते ॥५१५ सर्वेषामपि दोषाणां मध्ये क्षोभ' उदाहृतः । सर्वेषामपि धर्माणां मध्ये शम उदाहृतः ॥५१६ अघ ऊर्ध्वगति जीवमनीत्वा न निवर्तते । लक्षणं कोपसद्धर्मों द्वयमेतन्निरङ्कशम् ॥५१७ करता है, पर-धन और पर-रमणीका अपहरण, तथा दूसरोंका अपवाद करता है, आत्त और रौद्र ध्यानसे युक्त है, शीलवतका परिहार करता है, कुमार्गपर चलता है, खोटे मित्रोंका विश्वास करता है, खोटी दुराचारिणी स्त्रीका सेवन करता है, रोष-युक्त वचन बोलता है, दूसरेको दुःख देता है, सात व्यसन, पन्द्रह प्रमाद और इन्द्रियोंके पाँचों विषयोंका सेवन करता है, जिसके कषाय प्रबल है, तीनों शल्य हैं, मोह, राग, द्वेष, अविरति, मिथ्यात्व और नाना प्रकारके विकार जिसके विद्य. मान हैं, जिसके व्रत नहीं, जो कोई नियम पालन नहीं करता, गुरुकी निन्दा करता है, उन्हें दोष लगाता है, परद्रोहो है, हिंसा प्रधान तप करता है, चारित्रका विध्वंस करता है और महापापी है। इन कलंकित भावोंसे जीव संसारसागरमें परिभ्रमण करता है, वह घोर दुःख पाता है और पुद्गलपरावर्तनको प्राप्त होता है, अर्थात् दीर्घकाल तक संसारमें परिभ्रमण करता रहेगा। किन्तु जो उपर्युक्त दोष समूहसे विपरीत व्रतादिको पालता है, और पापादिका परित्याग करता है, वह शुद्ध चित्त भव्य पुरुष उसके फलसे स्वर्गको प्राप्त करता है ।।५०५-५१०॥ जिसके सर्व संग (परिग्रह) का परित्याग है, तपश्चरण है, चारित्र है, परीषहोंको जीतता है, तथा तीन गुप्ति, पांच समिति, बारह अनुप्रेक्षाओंकी विचारणा है, दश प्रकारका धर्म-धारण है, चित्त शुद्धि है, गुण-ग्राहकता है, रत्नत्रयको सम्पत्ति है, कायक्लेश है, षोड़शकारणोंकी भावना है, पाँच प्रकारका चारित्र है, शमभाव है, संयमका धारण है, सम्यक्त्व है, सर्व पाप योगोंकी निवृत्ति है, देव वन्दना करता है, रागद्वेषका परित्याग है, ब्रह्मचर्य महावत है, जिनप्रभावना करता है, नित्य व्रत स्वरूप नये-नये नियम ग्रहण करता है, शुक्लध्यान है, सदाचार है, और तीनों योगोंका निरोध करना इन उपर्युक्त बातोंका जिसके संयोग है उसको मुक्ति होती है ॥५११-५१५॥ . . सभी दोषोंके मध्यमें कोप सबसे बड़ा दोष कहा गया है और सभी धर्मोंके मध्यमें शमभाव सबसे बड़ा धर्म कहा गया है ।।५१६|| कोप जीवको दुर्गतिमें ले जाये विना निवृत्त नहीं होता। और धर्म जीवको दुर्गतिसे छुड़ाकर अधोगतिसे कर्ध्वगति करके मोक्षमें ले जाये विना नहीं रहता। १. उ 'कोप' पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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