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________________ श्रावकाचार-संग्रह कालस्यातिक्रमे ध्यानं वितनोति प्रपञ्चकम् । अङ्गुलीगणने व्याप्तिर्लोभात्कुटिलमानसः ॥४९५ चेतोमध्ये प्रियारूपं घृत्वा लिङ्गविकारता । जनावलोकने ध्यानं विधत्ते रोषपूरितः ॥ ४९६ नेत्रप्रकाशने ध्यानं नासाविन्यस्तलोचनः । प्रमादाकुलितो ध्याने ध्यानं तत्र नियोजयेत् ॥४९७ अधुनैव कृतं ध्यानमित्य सत्यं च भाषते । अविधाय क्षमां लोके ध्यानमाचरति ध्र ुवम् ॥ ४९८ आलस्योऽनादरो भोगी मन्दो रोगापराधवत् । क्षुधातुरो नरो यः स्यात्तस्य ध्यानं न सिद्ध्यति ४९९ इति द्वात्रिंशभिर्दोषा यैर्मुच्यन्ते नरोत्तमैः । तैनं किं प्राप्यते सिद्धिः सर्वेषां कर्मणां क्षये ॥५०० सामायिकेऽस्मिन् योग्योऽहमित्याभ्यन्तरबाह्ययोः । शुद्धि विधाय यस्तिष्ठेत्स योग्यः प्रोच्यते बुधैः ॥ ५०१ यः करोति न कालस्योल्लङ्घनामर्हतां स्तवे । कायचित्तवचः शुद्धया तस्य स्यात्कालसाधनम् ॥५०२ आसने निश्वले शुद्धे स्थाने च प्रासुके परे । यो भव्यः कुरुते मुद्रां तेनावर्तो विधीयते ॥५०३ विनयेन समं युक्त्या यो बिर्भात शिरोन्नतिम् । यथोत्पन्नस्तथा भूत्वा कुर्यात्सामायिकं स च ॥ ५०४ भयमशुभकर्मगाव विरुद्धलेश्याः अनर्थदण्डानि । परधनपररामाहृतिपरापवादश्च रौद्रार्ते ॥५०५ २५८ आदि करना, कालका उल्लंघनकर ध्यान करना, प्रपंच करना, अंगुलियों को गिनना, लोभसे कुटिल मन रखना, हृदयके मध्य अपनी प्रियाके रूपको रखकर लिंगमें विकार पैदा करना, मनुष्यके द्वारा देखे जानेपर रोषसे भरकर ध्यान करना, नेत्रोंको पूरा खुला रखकर ध्यान करना, प्रमादसे कुलित होना, ये सब कार्योत्सर्गके दोष हैं । ध्यानके समय नासापर दृष्टि रखकर उसके अग्रभाग पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये ||४९०-४९७।। ध्यान नहीं करके भी जो मैंने अभी ध्यान किया है, इस प्रकारसे असत्य बोलता है, जो अपराधी होनेपर लोगोंसे क्षमा नहीं मांग करके ध्यानका आचरण करता है, जो कार्योत्सर्ग करनेमें आलस्य और अनादर भाव रखता है, भोगोंमें लगा रहता है, मन्दबुद्धि है, रोगी है, अपराधवाला है, और जो मनुष्य भूखसे पीड़ित है, उसके ध्यान सिद्ध नहीं होता है ।। ४९८-४९९ ।। इस प्रकार कार्योत्सर्गके बत्तीस दोषोंसे जो विमुक्त रहते हैं उन श्रेष्ठ पुरुषोंको ध्यानके बलसे सर्वकर्मो का क्षय हो जानेपर क्या सिद्धि नहीं प्राप्त होती है ? अर्थात् अवश्य ही मुक्ति प्राप्त होती है ॥५००॥ सामायिक के समय योग्य व्यक्ति, योग्य काल, योग्य आसन, योग्य स्थान, योग्य मुद्रा, आवर्त और शिरोनति इन सात परिकर्मोंका करना आवश्यक है । ग्रन्थकार अब इनका क्रमसे वर्णन करते हैं - जो व्यक्ति अभ्यन्तर और बाह्य शुद्धि करके 'मैं सामायिक करने योग्य हूँ' ऐसा विचार करके सामायिक में बैठता है वह ज्ञानी जनोंके द्वारा सामायिकके योग्य कहा गया है ॥ ५०१ || सामायिकका काल प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल है, जो अर्हन्तोंके भावस्तवरूप सामायिक करनेमें इस कालका उल्लंघन नहीं करता है, किन्तु मन, वचन, कायकी शुद्धिसे यथासमय सामायिक करता है, उसके कालका साधन होता है ||५०२|| सामायिक में पद्मासन, खङ्गासन आदि निश्चल होना चाहिए। स्थान शुद्ध और प्रासुक होना चाहिए। मुद्राएँ चार प्रकारकी कही गई हैं - जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा, और मुक्ताशुद्धि मुद्रा । इनमेंसे सामायिकके समय यथासंभव जिनमुद्रा आदिको धारण करना चाहिए । सामायिकके समय बारह आवर्त कहे गये हैं और चार शिरोनति कही गई हैं। इन आवर्तीको तथा शिरोनतियोंको जो भव्य यथाजात रूप धारण करके विनयके साथ आगमोक्त युक्तिसे करता है उसकी सामायिक यथार्थ समझना चाहिए ॥ ५०३-५०४ ॥ जो व्यक्ति भय, अशुभ कर्म ( कार्य ) गारव और अशुभ लेश्यावाला है, अनर्थदण्डको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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