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________________ व्रतोचोतन-भावकाचार २५० येन केन सह द्वेषो न तेन समितो भवेत् । पाठमध्ये परं ते यत्र तत्र मनः क्षिपेत् ॥४८२ व्याख्यानं सहितं हास्यं बिभ्राणो देवसन्मुखः । त्यक्त्वा जिनेन्द्रस्तवनं शृणोत्यपरजल्पनम् ॥४८३ देवस्तुति विधायाशु' पश्चाद्वार्ता करोम्यहम् । इति कोपातुरो वेगात्कम्पितो भ्रामिताङ्गलिः ॥४८४ गुरोरग्रे स्थिति कृत्वा निकटो देवसन्निधौ। लाभप्रभावनाख्यातिकारणाहेववन्दकः ॥४८५ हुहुंकारौ करोत्यर्थ हीनाधिकपदस्थितिः । यः सदैवासदाचारस्तस्य सामायिकं कुतः ॥४८६ व्याख्यानं स्नपनं स्तात्रं वन्दना देवदक्षिणात् । स्वकर्णश्रवणादेव क्रियते देववन्दनात् ॥४८७ एतेहंद्वन्दनादोषा द्वात्रिंशत्समुदाहृताः । निर्दोषा वन्दना यस्य तस्य मोक्षस्य संभवः ॥४८८ ध्यानस्थितस्य ये दोषा प्रोच्यन्ते ते मयाऽधुना । विद्यमानेषु यत्तेषु न हि सिद्धपदं तदा ॥४८९ कम्पनं बद्धमुष्टिश्च जङ्घाश्लेषकरद्वयः । भित्तिस्तम्भाधवष्टम्भः खञ्जपादैकसंस्थितिः ॥४९० वेदिकाद्युपरि स्थानं मस्तकाधारसंयुतः । विकटांहिकृतध्यानं कराभ्यां गुह्यगोपनम् ॥४९१ बालके स्तनदानार्थो धात्रीव हृदयोन्नतिः । पाश्र्वादिलोकनासक्तः काकवच्चपलाक्षिकः ॥४९२ कुरुते तिर्यगूधि उत्तमाङ्गस्य दोलनम् । भ्रक्षेपश्च मनोऽस्थैर्यमधरस्फुरणं तथा ॥४९३ ध्यानं होनाधिकं धत्ते कायस्योल्लङ्घने सति । देहं कण्डूयते द्वेषः कुर्यानिष्ठीवनादिकम् ॥४९४ जिस किसीके साथ द्वेषभाव हो तो उसके द्वारा क्षमा प्राप्त किये विना सामायिक करना, पाठके मध्यमें दूसरेसे बोलना, इधर-उधर मनको ले जाना, व्याख्यान देते हुए सामायिक करना, देवके सम्मुख हास्यको धारण करना, जिनेन्द्र-स्तवनको छोड़कर दूसरे वार्तालाप सुनना, देवको स्तुति शीघ्र करके मैं पीछे तुमसे बात करता हूँ, ऐसा अन्यसे कहना, कोपसे आतुर होकर वेगसे कंपना, अंगुलियोंको घुमाना, गुरुके आगे बैठकर सामायिक करना, देवके अति निकट बैठकर सामायिक करना, लाभ, प्रभावना और ख्याति आदिके कारणसे देवकी वन्दना करना, बार-बार हुंकार करना, होनाधिक पदसे स्थित होना, ये सब सामायिकके दोष हैं। जो सदा ही असदाचारी है, उसके सामायिक कैसे संभव हो सकता है ॥४७६-४८६।। देवके दाहिनी ओर बैठकर, व्याख्यान, अभिषेक, स्तोत्र और वन्दना करनी चाहिए। देव-वन्दन इस प्रकार करे कि अपने उच्चारण किये हुए शब्द अपने ही कानोंसे सुने जावें । ये पूर्व कहे गये वन्दनाके बत्तीस दोष शास्त्रोंमें कहे गये हैं, जिसकी वन्दना निर्दोष होती है, उसके ही मोक्ष संभव है ॥४८७-४८८॥ ध्यानमें स्थित अर्थात् कायोत्सर्गके जो बत्तीस दोष होते हैं, अब मैं उन्हें कहता हूँ। क्योंकि उनके रहते हुए सिद्धपद नहीं प्राप्त हो सकता है ।।४८९॥ कायोत्सर्ग करते समय कंपना, मुट्ठी बाँधना, जंघाओंको दोनों हाथोंसे आश्लिष्ट करना, भीत, खम्भा आदिका सहारा लेना, खंजन पक्षीके समान एक पैरसे खड़ा होना, वेदिका आदिके ऊपर स्थित होना, मस्तकके आधारसे स्थित होना, पैरोंको विकट करके ध्यान करना, दोनों हाथोंसे अपने गुह्य अंगको ढककर खड़ा होना, बालकको स्तनसे दूध पिलानेवाली धायके समान छातीको ऊंचा करके खड़ा होना, पार्श्व भाग आदिको देखना, काकके समान चंचल नेत्रसे इधर-उधर देखना, तिरछे, ऊपर अथवा नीचे मस्तकको हिलाना-डुलाना, भ्रुकुटि-विक्षेप करना, मनको अस्थिर रखना, ओठोंका स्फुरण करना, कायका उल्लंघन होनेपर हीनाधिक ध्यान करना, शरीरको खुजलाना, द्वेष करना, निष्ठीवन १. उ ‘देवस्तवनविधि दीप्सु' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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