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________________ २५६ श्रावकाचार-संग्रह . कोपो लोभो भयं हास्यमन्तरे प्रतिजल्पितम् । एषां निष्कासनं यस्य तस्य सत्यव्रतात्फलम् ॥४६१ शून्यागारनिर्वृत्तिविमोचितावाससङ्गतिस्त्यजनम् । परोपरोधाकरणं भिक्षाशुद्धिः क्रियाप्रचयः ।।४७० सहयामिकेण सन्ततमविसंवादस्वभावसम्बन्धः । एते विचारभावाः प्रतिपाल्याः स्तेयनाशाय ॥४७१ स्त्रीरागकथाश्रवणं तदङ्गरूपावलोकनोत्कण्ठम् । पूर्वरतानुस्मरणं वृष्येष्टरसः स्वदेहसंस्कारः ॥४७२ इदमिति यः परिहरते व्रतं चतुथं भवेत्तस्य । ब्रह्मव्रतोपचाराद् व्रतमपरं नास्ति यद्भवने ॥४७३ रागद्वेषौ विहायो(?)इन्द्रियसौख्यममनोज्ञमनोज्ञम् । एते पञ्चप्रकाराः परिहरणीयाः सदाचारैः ॥४७४ एते पञ्चमहाव्रतपरिपाटीपञ्चविंशतिर्भेदाः । येषां चित्ते याता असंशयं ते भवन्ति तीर्थेशाः ॥४७५ सामायिकस्य दोषाः प्रभवन्ति महीतले । तानहं व्यक्तितो वक्ष्ये शृणु भव्य नरोत्तम ॥४७६ मनोवाकायवस्त्राणामशुद्धिः क्रोधपूरितः । ईयापथस्यासंशुद्धिः समदो रागसंयुतः ।।४७७ करम: वपुःस्पर्शी केशसम्माजनोद्यमी । ईक्षमाणोऽपि सर्वत्र दोलिताङ्गो निरन्तरम् ।।४७८ उन्नति विनति कृत्वा मस्तकस्य मुहुमुहुः । निजस्थानं परित्यज्य परस्थाने प्रवत्तितः ॥४७९ मन्दतारस्वर वर्तोऽन्यहस्ताद् द्वयीहतिः । पूज्यस्योल्लङ्घनं कृत्वा कुरुते जिनवन्दनम् ॥४८० सालस्यो भयभीताङ्गो गृहचिन्तातुराङ्कितः । लज्जितोऽनादरारम्भो गात्रसङ्कोचनस्थितः ॥४८१ क्रोध, लोभ, भय, हास्य और दोके अन्तर (मध्य) में बोलना, इन दोषोंका जिसके निष्कासन (निवारण) है, उसके सत्यव्रतसे फल प्राप्त होता है ।।४६९।। शून्यागार निवृत्ति, विमोचितावास, संगति परिहार, परोपरोधाकरण, भिक्षाशुद्धिको क्रियाओंका करना, तथा सार्मिकके साथ निरन्तर अविसंवादी स्वभावका सम्बन्ध रखना, ये विचारभाव चोरी दोषके नाश करनेके लिए प्रतिपालन करना चाहिए ।।४७०-४७१॥ स्त्री-रागकथा सुनना, उनके अंग और रूपके अवलोकनकी उत्कण्ठा होना, पूर्वकालीन भोगोंका स्मरण करना, वृष्य इष्ट रसका सेवन करना, और अपने देहका संस्कार करना जो इन पांवोंका परिहार करता है, उसके चौथा ब्रह्मचर्यव्रत होता है । इस ब्रह्मचर्य व्रतके आचरणसे बड़ा दूसरा व्रत सारे भुवन में नहीं है ॥४७२-४७३॥ पांचों इन्द्रियोंके मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयोंमें राग और द्वेषका परिहार करना सो परिग्रहत्यागवतकी पाँच प्रकारकी भावना है। सदाचारी पुरुषोंको पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका सदा ही परिहार करना चाहिए ॥४७४॥ इस प्रकार ये पाँचों महावतोंकी क्रम-परिपाटीसे पच्चीस भेदरूप भावनाएं जिनके हृदयमें रहती हैं वे निःसन्देह तोर्थङ्कर होते हैं ।।४७५।। हे नरोत्तम, भव्य सामायिकके जो दोष महीतलपर होते हैं उनको में व्यक्तिशः कहता हूँ सो तुम सुनो-मनको अशुद्धि, वचनको अशुद्धि, कायको अशुद्धि, वस्त्रको अशुद्धि, क्रोधसे भरा होना; ईर्ष्यापथकी अशुद्धि, मद-युक्त होना, रागसंयुक होना, हाथसे हाथका मर्दन करना, शरीरका स्पर्श करना, केशोंका सम्मान करना, देखना, शरीरके अंगोंका झुलाना, शरीरको ऊंचा-नीचा करना, मस्तकको बार-बार हिलाना, जिस स्थानपर सामायिक करनेको बैठे, उसे छोड़कर दूसरे स्थानपर जाना, कभी पाठको मन्द स्वरसे बोलना और कभी तारस्वरसे बोलना, एक हाथसे दूसरे हाथको ताड़न करना, पूज्य पुरुषका उल्लंघन करके जिनदेवको वन्दना करना, आलस्य-युक्त होकर वन्दना करना, भयभीत शरीर होकर वन्दना करना, घरकी चिन्तासे आकुल-व्याकुल होना, लज्जित होना, अनादर-पूर्वक सामायिकको आरम्भ करना, शरीरको संकुचित करके स्थित होना, १. उ प्रती 'भावनां' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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