________________
व्रतोद्योतन- श्रावकाचार
परोपदेशना क्रोधः कालक्षेपोऽविधानता । सचित्तवस्तुनिक्षेपोऽतिथीनां व्रतदूषणम् ॥४५६ जीवितमरणाशंसे मित्रस्नेही निदानभावश्च । सुखसंस्मरणस्थानान्येते सल्लेखनादोषाः ॥४५७ इति शिक्षाव्रतदूषणमुक्तं भव्येषु परमदेवेन । ये परिहरन्ति सततं चन्ति सर्वार्थसिद्धि ते ॥ ४५८ अनुभूय दुःखकारणमितरो गच्छेत्कुयोनिसंसर्गम् । मिथ्यात्ववृक्ष पुष्पैर्वासितचित्तो रुचौ विमुख ॥४५९ एते षष्ठिरतोचारा द्वादशव्रतदूषकाः । अतोऽतीचारनिर्मुक्तं व्रतं मोक्षोपदेशकम् ॥४६० मिथ्यादृष्टेः प्रशंसा च संस्तवश्च विशेषतः । त्रयं शङ्कादिदोषाणां सम्यग्दृष्टश्च दूषणम् ॥४६१ वाष्पकासातुरश्वासश्लेष्मालस विजृम्भणैः । अशुद्ध देहवस्त्राभ्यां जिन दूषणं भवेत् ॥४६२ पादसङ्कोचनाधिक्यक्रोधभ्रकुटितर्जनैः । मन्दामन्दस्वराधारैजिन स्नपनदूषणम् ॥४६३ मुखहस्ताङ्गुलीसंज्ञाखात्कारस्थालवादनैः । नन्दवद्धाक्षरालापैर्जायते मोनदूषणम् ॥४६४ चित्तं दोलायते यस्व शरीरं दोषपूरितम् । न षडावश्यकं तस्य विद्यते सिद्धिभाजनम् ॥४६५ महाव्रतस्य वक्तव्याः पञ्चत्रिंशतिभावनाः । यतिभिजितेन्द्रिवैनित्यो मोक्षमार्गोऽभिगम्यते ॥ ४६६ मनोगुप्तिर्वच गुप्तिर्यापथविशोधिनी । वस्तुग्रहणनिक्षेप समितित्रतपालनम् ॥४६७ मध्याह्न पमयारम्भे भाजनाम्बुनिरोक्षणम् । एतेषां संग्रहो यस्य तस्याहिसाव्रतं भवेत् ॥४६८
ने कहे हैं ||४५५ || दूसरेसे आहार दिलाना, दान देनेके समय क्रोध करना, दान कालमें विलम्ब करना, भोज्य वस्तुको सचित्त पत्रादिसे ढकना और सचित्त वस्तुपर देयपदार्थको रखना, ये अतिथिसंविभागव्रत के पाँच दूषण हैं || ४५६ || संन्यास ग्रहण करनेके पश्चात् जीने की इच्छा करना, मरनेकी इच्छा करना, मित्रोंसे स्नेह रखना, निदानभाव रखना और पूर्वके सुखोंका संस्मरण करना ये पाँच सल्लेखनाके दोष हैं ||४५७|| इस प्रकार परम जिनदेवने शिक्षाव्रतोंके दूषण भव्य जीवों में कहे । जो इनका सदा परिहार करते हैं वे सर्व अर्थको सिद्धिको प्राप्त करते हैं ||४५८ ॥ किन्तु जो इनका पालन नहीं करता है, मिथ्यात्वरूपी वृक्ष के पुष्पोंसे वासित जिसका चित्त है, सम्यग्दर्शनसे विमुख है वह दुःखके कारणोंका अनुभव करके कुयोनिके संसर्गको प्राप्त होता है || ४५९ || ये उपर्युक्त साठ अतिचार बारह व्रतोंमें दूषण लगाते हैं । इन अतिचारोंसे रहित व्रत मोक्षके उपदेशक या दाता हैं ||४६०|| मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा करना, विशेषरूपसे उनकी स्तुति करना, और शंका, कांक्षा विचिकित्सा करना ये तीन इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के ये पांच दूषण हैं ॥ ४६१ ||
२५५
वाष्प, कास आतुर (पीड़ित ) हो श्वास श्लेष्मा करते हुए आलस, जंभाई लेते हुए, अशुद्ध देह और अशुद्ध वस्त्र से जिन-पूजन करना ये पूजनके दूषण है || ४६२ || पाद-संकोचना, या फैलाना, क्रोध करना, भृकुटि चढ़ाना, दूसरेको तर्जन करना, मन्द या अमन्द (तीव्र) स्वर और वेगके साथ जल-धारा करना, ये जिनाभिषेकके दूषण हैं ||४६३ || मुख, हाथ, अंगुली से संकेत करना, खंखारना, थाली बजाना, मेंढक के समान अक्षरोंका बोलना (टर्र-टर्र करना) ये मौन व्रतके दूषण हैं ॥४६४ ॥ वन्दना आदिके करते समय जिसका चित्त डाँवाडोल रहता है, और जिसका चित्त दोषोंसे पूरित है, उसके छह आवश्यक सिद्धिके भाजन नहीं हैं ॥ ४६५ ।।
अब पाँच महाव्रतोंकी भावनाएँ कहनी चाहिए, जिनसे जितेन्द्रिय साधुओंके द्वारा नित्य मोक्षमार्ग प्राप्त किया जाता है ||४६६ || मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईर्यापथ-विशोधिनी समिति वस्तु आदाननिक्षेपण समितिव्रतका पालन करना और मध्याह्नकालके आरम्भ में आहार -पानका निरीक्षण करना, इन पांच भावनाओंका संग्रह जिसके होता है, उसके अहिंसाव्रत होता है ।। ४६७ - ४६८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org