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________________ २५४ बाबकाचार-संग्रह इत्यं पञ्चाणुव्रतमनतीचारं यः समाचरति । सः स्वर्गे सुरनाथः स्यादितरः सप्तमे नरके ॥४४६ ऊोऽधस्तियंगाक्रान्तिक्षेत्रस्मृतिविलोपनम् । पञ्च दिग्विरतेजेंया अतीचारमलोद्धताः ॥४४७ प्रेष्य आनयनं शब्दरूपपुदगलसङ्गतिः । देशस्य विरतेः पञ्च प्राज्ञैर्दोषा उदाहृताः ॥४४८ कायकोत्कुच्यमौखर्यासमोक्षाः प्रतिजल्पनम् । भोगोपभोगसंचर्याऽनर्थदण्डस्य कारणम् ॥४४९ अथवा कुकुंटकुक्कुरपारापतानुकीराणाम् । पशुनीलीमयणानां भृङ्गीपानादिकानां च ॥४५० लशुनसनशस्त्रलामाकृषिवाणिज्यप्रणष्टचर्याणाम् । अतिमोहलोभलाभावनर्थदण्डाश्च जायन्ते ।।४५१ इत्यखिलं यः कुर्यादनतोचारं गुणवतं त्रिविधम् । सो वैमानिक'नाथस्य॑िग्योनो भवेदितरः ॥४५२ योगत्रयस्य दुनिं स्मृतिलोपोऽप्यनादरः । एतत्सामायिकस्योक्तं पश्चातीचारदूषणम् ॥४५३ प्रमार्जनविनिर्मुक्तोत्सर्गादानश्च संस्तरे। आहारं स्मृतिशङ्काभ्यामुपवासस्य दूषणम् ॥४५४ सचित्तमिश्रसम्बन्धं दुःपक्वान्नारनालता । भोगोपभोगसंख्याया अतीचारान् विदुर्बुधाः ॥४५५ रूप्यदान, ४. कुप्य-भाव और ५. गवादि-गर्भ ये पांच अतीचार हैं। इनका विशेष अर्थ यथास्थान देखना चाहिए ॥४४५।।) ___ इस प्रकार जो पांचों अणुव्रतोंका अतिचार-रहित पालन करता है वह स्वर्गमें देवोंका स्वामी होता है, और जो उक्त व्रतोंका पालन नहीं करता, प्रत्युत पापोंका सेवन करता है, वह सप्तम (?) नरकमें जाता है ॥४४६।।। मर्ध्व दिशा व्यतिक्रम, अधोदिशा व्यतिक्रम, तिर्यग्दिशा व्यतिक्रम, क्षेत्र वृद्धि और सीमाविस्मरण ये पांच दिग्विरतिव्रतके अतिचार जानना चाहिए ।।४४७॥ देशव्रतकी सीमासे बाहिर भेजना, सीमाके बाहिरसे बुलाना या मंगवाना, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गल प्रक्षेप ये पाँच देशविरतिव्रतके दोष प्राज्ञ पुरुषोंने कहे हैं ॥४४८॥ कायकी कुचेष्टा करना, मुखरता करना, समीक्षण किये बिना उठाना-रखना, प्रतिजल्पन (उत्तरपर उत्तर देना) और भोगोपभोगका अनर्थक संचय करना ये पाँच अनर्थदण्डके कारण हैं, अर्थात् अनर्थदण्ड विरतिव्रतके अतिचार हैं ॥४४९॥ अथवा मुर्गा, कुत्ता, कबूतर, तोता, पशु, मोर, मैना और भृगी (भौंरी) आदिको पालना, उनको पोंजरा आदिमें बन्द रखना, लशुन, सन, शस्त्र, लाख आदिका व्यापार करना, कृषिका धंधा करना, पशुओंका व्यापार करना, तथा इस प्रकारके अन्य खोटे कार्योंको अतिमोहसे, लोभसे या अर्थ-लाभसे करनेपर अनर्थदण्ड होते हैं ।।४५०-४५१।। इसी प्रकार इन सर्वत्रिविध गुणवतोंका जो अतिचार-रहित पालन करता है, वह विमानवासी देवोंका स्वामी होता है। किन्तु जो इन्हें पालन नहीं करता है, वह तिर्यंचयोनिमें जन्म लेता है ।।४५२॥ मन वचन कायका खोटा उपयोग रखना, सामायिक करनेका स्मरण नहीं रखना, और सामायिक करने में अनादर करना ये सामायिक शिक्षा व्रतके पाँच अतिचार दूषण हैं ॥४५३|| प्रमाजनके विना किसी वस्तुका रखना, ग्रहण करना, बिस्तर बिछाना, आहारका स्मरण करना अथवा पर्वके दिन भूलसे आहार कर लेना और उपवास करनेमें शंका रखना ये पांच उपवास शिक्षाव्रतके दूषण हैं ।।४५४।। सचित्त, सचित्त मिश्र, सचित्त संबद्ध वस्तुका सेवन करना, दुःपक्व अन्नका आहार करना और कांजी सेवन करना, ये भोगोपभोग-संख्यान शिक्षाव्रतके पांच अतिचार ज्ञानियों - १.. उ प्रती 'वेयक०' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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