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धर्मध्यानके चारों भेदोंका निरूपण सालम्ब और निरालम्ब धर्मध्यानका वर्णन
बहु आरम्भ गृहस्थके मुख्यरूपसे शुद्ध आत्म-चिन्तनरूप ध्यान संभव नहीं है क्योंकि नेत्र बन्द करते ही गृह-कार्य सामने खड़े दिखाई देते हैं
श्रावकाचार - संग्रह
बिना आलम्बनके ध्यानमें स्थिरता नहीं रह सकती है, अतः गृहस्थको पंचपरमेष्ठी आदिका आलम्बन लेकर ही ध्यान करना चाहिए
गृहत्याग करनेके पूर्व श्रावकको पुण्य कार्य करते रहनेका उपदेश मिथ्यात्वीका पुण्य संसारका और सम्यक्त्वीका पुण्य मोक्षका कारण है पुण्यके फलका विस्तृत वर्णन
देवपूजन पुण्योपार्जनका प्रधान कारण है, अतः उसके करनेका उपदेश देव-पूजन की विधिका निरूपण जिनाभिषेककी विधिका वर्णन सिद्धचक्र यन्त्रकी आराधनाका उपदेश पंचपरमेष्ठी - यन्त्रकी आराधनाका उपदेश अष्टद्रव्योंसे की गई पूजाके फलका वर्णन
पूजन करके १०८ बार जाप करने तथा विसर्जन करनेका उपदेश
पूजनके महान् फलका वर्णन
बारह व्रतोंका निरूपण
चारों दानोंके महान् फलका वर्णन
सुपात्रोंके दानका फल
कुपात्रोंके दानका फल
पात्र-अपात्रका निर्णय करके ही दान देना चाहिए
दान नहीं देनेवाले कृपण पुरुषकी निन्दा
धर्मकार्य में विघ्न करनेवाला शत्रु है, अतः धर्म - कार्य में विघ्न नहीं करना चाहिए
दान नहीं देनेके दुष्फलोंका वर्णन पुण्यके फलका निरूपण भोगभूमि सुखका वर्णन
३१. संस्कृत भावसंग्रह- गत श्रावकाचार पंचम गुणस्थानके भावोंका वर्णन श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका निर्देश दर्शनप्रतिमाका वर्णन
व्रतप्रतिमाका वर्णन
सामायिक शिक्षाव्रतके भीतर जिन-पूजनका विधान और उसकी विधिका विस्तृत वर्णन पूजनके अन्त में अन्तर्मुहूर्तकालतक निजात्माके ध्यानका उपदेश मासके चारों पर्वोंमें प्रोषध करनेका वर्णन
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