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________________ ४२७ विषय-सूची २८. पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका-गत श्रावकाचार ४२७-४३३ धर्मका स्वरूप और उसके भेद गृहस्थके देवपूजादि षट्कर्तव्योंका निर्देश सामायिकका स्वरूप और उसकी प्राप्तिके लिए सप्तव्यसनोंके त्यागकी आवश्यकता सात व्यसन सात नरकोंमें जानेके द्वार हैं प्रतिदिन जिन-दर्शन और पूजन करनेवालोंकी प्रशंसा और नहीं करनेवालोंकी निन्दा गुरूपास्तिके सुफल और नहीं करनेवालोंके दुष्फलका वर्णन स्वाध्याय, संयम और यथाशक्ति तपश्चरण करनेका उपदेश बारह व्रतोंका पालन, जल-गालन और रात्रि-भोजन-वर्णनका उपदेश । विनय मोक्षका द्वार है, अतः उसके नित्य करनेका उपदेश दान-हीन गृह कारागारके समान हैं, अतः दान देनेकी प्रेरणा दया धर्मका मूल है, अत: जीवदया करनेका उपदेश अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनका उपदेश और उनका वर्णन ४३१ यथाशक्ति क्षमादि दश धर्मोके पालन करनेका उपदेश ४३२ २९. देशवतोद्योतन ४३३-४३९ वीतरागी सर्वज्ञके वचनोंमें शंकित-बुद्धि पुरुष या तो महापापी है, अथवा अभव्य है वर्तमानमें दुःखी किन्तु सम्यक्त्वीकी प्रशंसा, किन्तु वर्तमानमें सुखी परन्तु मिथ्यात्वी पुरुषको निन्दा सम्यक्त्व मोक्षका बीज है और मिथ्यात्व संसारका बीज है, अतः सम्यक्त्व प्राप्तिके लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए रात्रिभोजन-त्याग, गालित जल-पान और बारह व्रत-पालनका उपदेश देव-पूजनादि कार्योंके करते रहने पर भी दान देनेकी प्रेरणा चारों प्रकारके दानकी आवश्यकता और महत्ताका वर्णन दानसे गृहस्थपनेकी सार्थकताका वर्णन दान ही संसारसे पार उतारनेके लिए पोतके समान है ४३७ जिन-पूजन, स्मरण तथा मुनिजनोंको दान देनेके बिना गृहाश्रम पाषाणकी नावके समान है जिन चैत्य-चैत्यालयोंकी महत्ता और करने-करानेवालोंकी वन्द्यताका निरूपण ४३८ जिन चैत्यालयोंके होनेपर ही अभिषेक, पूजनादि पुण्य कार्यो का होना संभव है चारों पुरुषार्थों में मोक्ष ही प्रधान है और उसकी प्राप्ति धर्मसे ही संभव है, अतः धर्मपुरुषार्थ ही करते रहना चाहिए ४३९ ३०. प्राकृतभावसंग्रह-गत श्रावकाचार ४४०-४६४ विरताविरतरूप पंचम गुणस्थानका स्वरूप आठ मूलगुणों और बारह व्रतोंका निर्देश बहु आरम्भी-परिग्रही गहस्थके आर्त-रौद्रध्यान ही संभव है, धर्मध्यान संभव नहीं गृह-कार्य-जनित पापोंका क्षय भद्र ध्यानसे ही संभव है, अतः उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न करना चाहिए ४१ ४३४ ४३५ ४३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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