________________
विषय-सूची
भोगोपभोगपरिमाणव्रतका वर्णन अतिथिसंविभागव्रतका विस्तृत वर्णन
पात्रको प्राक एवं निर्दोष दान देने और अयोग्य अन्नादि नहीं देनेका विधान सामायिक प्रतिमाका वर्णन
प्रोषध आदि शेष प्रतिमाओं का वर्णन
ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके त्रिकालयोग आदिका निषेध पूजाके भेदों का वर्णन
चारों प्रकारके दान देनेकी महत्ता और आवश्यकताका निरूपण सुपात्रों और कुपात्रोंके दानका फल - वर्णन
अपात्रको दान देना व्यर्थ है और दुर्गतिके दुःखोंका कारण है। स्वाध्याय, संयम और तपश्चरण करनेका यथाशक्ति निरूपण निरालम्बध्यान अप्रमत्तसंयतोंके ही सम्भव है, अतः गृहस्थको सावलम्ब ध्यान ही
करना चाहिए
भव्यश्रावकको सदा पुण्योपार्जनके कार्य करते रहनेका उपदेश
सम्यग्दृष्टिका पुण्य संसारकी उत्कृष्ट विभूतियोंको देकर अन्तमें मोक्षलक्ष्मी देता है, इसका निरूपण
३२. रयणसार गत श्रावकाचार
इस पंचमकालमें मिथ्यात्वी श्रावक और साधु सुलभ हैं, किन्तु सम्यक्त्वी श्रावक और साधु मिलना दुर्लभ है
अशुभ और शुभ भावोंका निरूपण
इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त अज्ञानीकी अपेक्षा इन्द्रिय-विषयासक्त ज्ञानी श्रेष्ठ है गुरुभक्तिविहीन अपरिग्रही शिष्योंका तपश्चरणादि ऊषरभूमिमें बोये गये बीजके
समान निरर्थक है
३३. पुरुषार्थानुशासन - गत श्रावकाचार धर्मका स्वरूप और धर्मके फलका वर्णन श्रावककी ११ प्रतिमाओंका नाम -निर्देश सभी व्रतों और शीलोंमें सम्यग्दर्शन मुख्य है सत्यार्थदेवका स्वरूप
Jain Education International
२९
For Private & Personal Use Only
४७०
2 x = x = x x = 8 =
४७१
४७२
४७३
४७५
४७६
४७७
11
दृष्टि और कुष्टिका स्वरूप
सम्यग्दृष्टि जीव छयालीस दोषोंसे रहित होता है
दान, पूजन श्रावक और ध्यान, अध्ययन मुनिके मुख्य कर्तव्य हैं सुपात्रदानके सुफलका विस्तृत वर्णन
31
जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजादिसे बचे धनको भोगनेवाला दुर्गतियोंके दुःखोंको भोगता है ४८२ दान, पूजनादिसे रहित, कर्तव्य - अकर्तव्य के विवेकसे हीन एवं क्रूरस्वभावी मनुष्य
सदा दुःख पाता है
४७८
""
४७९-४८६ ४७९
"
४८०
"
४८३
४८४
४८५
४८६
४८७-५३३
४८७ ४८८
11
33
www.jainelibrary.org