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________________ अतोचोतन-भावकाचार २५१ उपाजितं कर्म न वृद्धिमेति प्रदेशमन्यं कुरुते च कर्म। यत्रास्त्रवाणां क्रियते निरोधस्तं संवरं प्राइजिनागमज्ञाः ॥४२३ गुप्निवतसमितिभिरिन्द्रियरोधेः कषायनिग्रहणः । यमसंयमनियमाङ्गः संजातं कर्मनिर्जरणम् ॥४२४ अनुप्रेक्षातपोधर्म: परोषहजयैस्तथा। सविपाकाविपाकाम्यां जायते निर्जरा द्विधा ॥४२५ समस्तकमनिर्मुक्तं रत्नत्रयविभूषितम् । अहं मोक्षं समिच्छामि त्रैलोक्यशिखरस्थितम् ॥४२६ इति जीवादितत्त्वानां चिन्तनं यः करोत्यरम् । शङ्कादिभिरतीचारैस्त्यक्तः स्यात्तस्य वर्शनन् ॥४.७ शास्त्रप्रत्यूहनं यत्र वाचना तत्र जायते । सन्देहभञ्जनं यत्र पृच्छना तत्र संभवेत् ॥४२८ वैराग्यकारणं यत्रानुप्रेक्षा सा प्रकोत्तिता। यत्रागमप्रमाणानि स चाम्नायः प्रकल्पते ।।४२९ इलाध्यं धर्मद्वयं यत्र सैव धर्मोपदेशना । स्वाध्यायः पञ्चधा प्रोक्तः सम्यग्दर्शनहेतवे ॥४३० मायामिथ्यानिदानवंतनियमयमध्वंसनैः संयमानां पातश्चारित्रघातैगंतविनयनयमुक्तसब्रह्मचर्यः । दौर्जन्यैः साधुवादैः परहतगुरुभिर्देवद्रव्यापहारेरार्यातारुण्यसङ्गैरवगणितकृपैर्देहिनां दुर्गतिः स्यात् ४३१ रागद्वेषकषायबन्धविषयप्रोतिस्वकीयप्रियाऽत्यन्तासक्तिपराङ्गनापहरणाद् ध्यानद्वयाभ्यासनेः। कामोद्रेकतपोविनाशकलहानर्थप्रमावेन्द्रियव्यापारव्यसनातिजोवहनन स्तियंग्गतिर्जायते ॥४३२ . . हो, (पाप) कर्मका अन्य (पुण्य प्रकृति रूप) प्रदेश संक्रमण किया जावे, और जहां आनेवाले कर्मोका निरोध किया जावे, उसे जिनागमके ज्ञाता पुरुष संवरतत्त्व कहते हैं ।।४२३।। गुप्ति, व्रत, समिति, इन्द्रिय-निरोध, कषाय-निग्रह, यम, नियम और संयमके अंगोंके द्वारा कर्मोको निर्जरा होती है। ॥४२४।। तथा बारह अनुप्रेक्षा, बारह तप, दश धर्म और बाईस परोषहोंका विजय, इनके द्वारा सविपाक और अविपाक इन दो प्रकारोंसे कर्मोको निर्जरा होती है। यह निर्जरा तत्त्व है। ४२५।। समस्त कर्मोंसे विमुक्त होनेको मोक्ष तत्व कहते हैं। मैं रत्नत्रय-विभूषित और त्रैलोक्यके शिखरपर स्थित ऐसे इस मोक्षकी मन वचन कायसे इच्छा करता हूँ॥४२६॥ इस प्रकारसे जीवादि सप्त तत्वोंका जो भलोभांतिसे निरन्तर चिन्तन करता है और शंका-कांक्षा आदि अतिचारोंसे विमुक्त रहता है, उसके सम्यग्दर्शन होता है ।।४२७।। जहाँपर शास्त्रोंका ऊहापोह होता है, वहांपर वाचना नामक स्वाध्याय होता है। जहाँपर गुरुजनोंसे पूछकर सन्देहको दूर किया जाता है, वहाँपर पृच्छना नामका स्वाध्याय होता है ।।४२८।। जहाँपर वैराग्यको कारणभूत भावनाओंका चिन्तन किया जाता है, वह अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय कहा गया है। जहाँपर तत्त्वसिद्धिके लिए आगम-प्रमाण उपस्थित किये जाते है, वह आम्नाय नामका स्वाध्याय कहा जाता है ।।४२९ ।। जहाँपर प्रशंसनीय मुनिधर्म और श्रावकधर्म इन दो प्रकारके धर्मका उपदेश दिया जाता है, वह धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिए यह पांच प्रकारका स्वाध्याय कारण रूप कहा गया है ॥४३०॥ माया, मिथ्या, निदान इन तीन शब्दोंसे, व्रत, नियम और यमके विनाशसे, संयमके त्यागसे, चारित्रके घातसे, विनय और नय-नीतिके परित्यागसे, उत्तम ब्रह्मचर्य के छोड़नेसे, दुर्जनोंके द्वारा किये गये कार्योंको साधुवाद देनेसे, गुरुजनोंके पराभव करनेसे, देव-द्रव्य (निर्माल्य) के अपहरणसे, आर्या-तारुण्य-संगसे अर्थात् तरुण आर्यिकाओं और अन्य परस्त्रियोंके साथ संगम करने, और दयाभावका तिरस्कार करनेसे अर्थात् निर्दय-व्यवहार करनेसे प्राणियोंको दुर्गति अर्थात् नरकगति प्राप्त होती है ॥४३॥ राग, द्वेष, कषाय-बन्ध, इन्द्रिय-विषयोंसे प्रीति, अपनी प्रियामें अत्यन्त आसक्ति, पर-महिलाका अपहरण करनेसे, मात-रौद्र इन दो अशुभ ध्यानोंके अभ्यास-निरन्तर चिन्तन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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