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________________ २५२ श्रावकाचार-संग्रह अणुवतगुणवतप्रथितचारुशिक्षाव्रतैजिनेश्वर-सरस्वती-यतिपतिप्रणतेस्तथा। सुकृतभावना-त्रिविधपात्रवानैर्भवेन्मनुष्यगतिस्त्तमा परमतत्त्वचिन्ताजनैः ॥४३३ सदा धर्मध्यानस्वपरहितकारुण्यवचनस्तपःकायक्लेशाच्चरणचरणाराधनपरैः । परानिन्दाऽऽरम्भप्रतिहतषडावश्यकरणैमुनीन्द्रदेवेन्द्रं पदमखिलमाप्यस्तकरणैः ॥४३४ यः कुरो दुष्टबुद्धिविनिहतकरुणो होनचेष्टः कृतघ्नो दुष्टश्चाण्डालवृत्तिः परषनरमणोहर्तुकामो जडात्मा। सावधो मन्त्रभेदी प्रहतगुरुजनो रातिवादो हताशो दोषज्ञो मर्मघाती व्यसनभरयुतो दुर्गरागतोऽसौ ॥४३५ यो रोषी रोगपूर्णो मलभद्वसनः श्लेषिताङ्गो वराको हाहाकारेण युक्तः परिजनरहितो निन्दितात्मा क्षुधार्तः । निःसत्यो दूरकर्मा कलुषितवदनो नित्यमुच्छिष्टसेवी मायारूप: प्रकल्पी समभवदशुभं तस्य तैरश्चजन्म ॥४३६ वानं सत्यमना परोपकरणं वर्गत्रये भावना श्रीसङ्गो निरहकृतिर्गतमदो जीवावनं साधुता। सर्वप्रीतिरनाकुलत्ववचनं रत्नत्रयालङ्कृतिय॑स्योदारगुणो मनुष्यभवतोऽसावागतो धार्मिकः ॥४३७ से, काम वासनाकी अधिकतासे, तपके विनाशसे, कलह, अनर्थ, प्रमाद और इन्द्रिय-व्याफारसे, व्यसन-सेवन करनेसे, तथा जोवोंके घातसे तिर्यग्गति प्राप्त होती है ॥४३२।। अणवत. गणव्रत. और प्रसिद्ध सुन्दर शिक्षावतोंके पालन करनेसे, जिनेश्वर देव, सरस्वती और मुनिजनोंको प्रणाम करनेसे, सत्कार्योंकी भावना करनेसे, तीन प्रकारके पात्रोंको दान देनेसे और परमतत्त्वोंका-चिन्तन करनेसे उत्तम मनुष्य गति प्राप्त होती है ।।४३३॥ सदा धर्मध्यान करनेसे, स्व-परका हित करनेसे, करुणामय वचन बोलनेसे, तपश्चरण, काय-क्लेश-सहन, और चारित्र-आराधनमें तत्पर रहनेसे, पर-निन्दा नहीं करनेसे, आरम्भके परित्यागसे, समता-वन्दनादि छह आवश्यकोंके परिपालनसे, इन्द्रिय-विषयोंका विनाश करनेवाले मुनिराजोंके द्वारा समस्त देवेन्द्र-पद प्राप्त किये जाते हैं। भावार्थ-उक्त कार्योंके करनेसे उत्तम देवगति प्राप्त होती है ।।४३४॥ जो वक्र (कुटिलस्वभावी) है, दुष्टबुद्धि है, करुणा-रहित है, हीन चेष्टाएँ करनेवाला है, कृतघ्नी है, दृष्ट कार्य करनेवाला है, चाण्डाल वृत्ति है, पर-धन और पर-रमणीको हरण करनेकी इच्छा रखता है, जड़स्वभावो (महामूर्ख) है, सावद्य (पाप) कार्य करने वाला है, पर-मंत्रका भेदन करता है, गुरुजनोंका घातक है, कलह और वाद-विवाद करने वाला है, हताश है, दोषज्ञ अर्थात्पर दोषोंका अन्वेषक या दोषग्राही है, मर्मघातो है, और व्यसनोंके भारसे लदा हुआ है, वह मनुष्य दुर्गति अर्थात् नरकगतिसे आया है, ऐसा जानना चाहिए ॥४३५।। जो रोषो (रोष-युक्त) है, जिसका शरीर रोगोंसे परिपूर्ण है, मलसे भरे हुए वस्त्रोंको धारण करता है, हीन-अधिक और चिपटे हुए अंग वाला है, दीन है, हाहाकारसे युक्त है, स्वजन-परिजनोंसे रहित है, जिसको आत्मा निन्दाको प्राप्त हो रही है, भूखसे सदा पोड़ित रहता है, असत्यवादी है, कर्तव्य करनेसे दूर रहता है, कलुषित मुखवाला है, नित्य दूसरोंको जूठन खाता है, मायाचारके अनेक रूपोंका धारक है, और अशुभ कार्यको करता है उसका जन्म तियंच योनिसे हआ है, ऐसा जानना चाहिए ।।४३६।। जो दान देता है. सत्य हृदय है. परोपकार करता है. धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गोंमें भावना रखता है, लक्ष्मीसे या शोभासे सम्पन्न है, अहंकारसे रहित है, जाति-कुलादिके मदोंसे रहित है, जीवोंकी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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