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________________ २५० श्रावकाचार - संग्रह सकलो निःकलोsन्द्रो निश्चलो निरुपद्रवः : निरञ्जनो निरापेक्षो निरीहो निखिलप्रभुः ॥४१४ निर्व्यापारो निरास्वादो निष्कषायो निराश्रयः । निरालम्बो निराकारो निःशल्यो निर्भयात्मकः ॥ ४१५ निर्मोहो निर्मदो योगनिर्दोषो निर्मलस्थितिः । निर्द्वन्द्वो निर्गताभावो नीरागो निर्गुणाश्रयः ॥ ४१६ सिद्धो बुद्धो विचारज्ञो वीतरागो जिनेश्वरः । सम्यग्दर्शन शुद्धात्मा मुक्तिवध्वाऽभिगम्यते ||४१७ एवं मिथ्यात्वसंस्थानं जितं येन महात्मना । तस्य पादद्वयं नत्वा जीवतत्त्वं निरूप्यते ॥४१८ शुभाशुभं कर्ममयं शरीरं विभुज्यते येन सचेतनेन । अनाद्यनन्तेन भवस्थितेन तज्जीवतत्त्वं कथितं जिनेन्द्रः ॥४१९ शब्दादिपञ्च विषया प्रपञ्चभावो न संस्थिता यत्र । तदजीवतत्त्वमाहुस्तत्त्वज्ञाश्चेतनारहितम् ॥४२० कस्येयं रमणी गजेन्द्रगमिनी सौन्दर्यमुद्राङ्किनो मह्यं यच्छति मैथुनं यदि ततो मे संसृतिः सार्थिका । द्रव्यं तस्करभावतो यदि भवेद्भोगास्ततो बन्धुरा एवं कायवचोमनोनुकरणात्कर्मास्रवो जायते ॥४२१ दुर्ध्यानैः परनर्ममर्मकथनेः पापाङ्गि संसेवनैश्चारित्रत्यजनैर्व्रतोपशमनैर्ब्रह्मव्रतध्वंसनैः । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादविषयैर्योगः कषायेन्द्रियैर्दोषं बंन्धचतुष्टयेन सहितैर्बन्धो भवेत्कर्मणाम् ॥४२२ तथा मिथ्यात्वके मूलको दलन करने वाला है || ४१३ || जिनेश्वरदेव कैसे हैं ? सुनो-अरहन्त भगवान् सकल (शरीर-सहित ) हैं और सिद्ध भगवन्त निःकल ( शरीर - रहित ) हैं, तद्रा - रहित हैं, निश्चल हैं, उपद्रव - रहित हैं, निरंजन हैं, निरापेक्ष हैं, निरीह (इच्छा-रहित) हैं, सर्वप्राणियों के प्रभु हैं, व्यापार-रहित हैं, आस्वाद रहित हैं, कषाय-रहित हैं, आश्रय-रहित हैं, आलम्बन-रहित हैं, आकार-रहित हैं, शल्य-रहित हैं, निर्भय-स्वरूप हैं, मोह-रहित हैं, मद- रहित हैं, योगोंके दोषसे रहित हैं, निर्मल स्थिति वाले हैं, द्वन्द्व-रहित हैं, अभाव- र व-रहित हैं, राग-रहित हैं, निर्गुण आश्रय वाले हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, विचारज्ञ हैं, वीतराग हैं, उनकी आत्मा सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है और वे मुक्तिरूपी वधू द्वारा अभिगम्य हैं । जिस महात्माने उक्त प्रकारके मिथ्यात्व संस्थानको जीत लिया है, उसके दोनों चरणोंको नमस्कार करके अब जीवतत्त्व ( आदि तत्त्वों ) का निरूपण किया जाता है ||४१४-४१८।। जिस अनादि - अनन्त ओर भवस्थित सचेतन तत्त्व के द्वारा यह शुभ-अशुभ कर्ममयी शरीर भोगा जाता है, उसे ही जिनेन्द्र देवोंने जीवतत्त्व कहा है || ४१९ || जिसमें शब्द आदि पाँचों इन्द्रियोंके विषय नाना प्रकारके प्रपंच रूपसे अवस्थित हैं अर्थात् जिसमें शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप पर्यायें पाई जाती हैं ऐसे चेतना - रहित मूर्त तत्त्वको तत्त्वोंके ज्ञाता पुरुष उसे अजीवतत्त्व कहते हैं ॥४२० ॥ यह गजेन्द्रगामिनी और सौन्दर्य-मुद्रासे अंकित रमणी किसकी है? यदि यह मुझे मैथुन-सेवन करने दे तो मेरा संसार सार्थक हो जाय ? यदि धनादि द्रव्य कहीं चोरी करने से मुझे प्राप्त हो जाय तो सुन्दर भोगोंकी प्राप्ति सुलभ हो जाय ? इस प्रकारके मन वचन कायकी प्रवृत्ति करनेसे कर्मोंका आस्रव होता है । यह आस्रव तत्त्व है ||४२१|| आर्त- रौद्ररूप दुर्ध्यानोंसे, दूसरोंके कोमल मर्मस्थानोंके छेदन-भेदन करनेवाले वचनोंके बोलनेसे, पापी प्राणियोंके पालन-पोषणसे, अथवा पापके कारणोंका सेवन करनेसे, धारण किये हुए चारित्रको त्याग करनेसे, व्रतोंको उपशान्त (समाप्त) करनेसे, ब्रह्मचर्य व्रतका विध्वंस करनेसे, मिध्यात्व अविरति प्रमादविषयक योग और कषायपरिणत इन्द्रियोंके विषय इन चार बन्धके कारणोंसे सहित नाना प्रकारके दोषोंसे कर्मोका बन्ध होता है । (यह बन्धतत्त्व है ) ||४२२ ॥ जहां उपार्जित कर्म वृद्धिको प्राप्त न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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