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व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
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द्रव्यानुसारेण ददाति दानं पात्रेषु शीलस्थितमानसेषु ।
यो भावतो जैनमतानुरागी स त्यागधर्मा कथितो जिनेन्द्रः ॥३७७ मनोवाञ्छितवस्तूनां सर्वथा त्यागमाश्रयेत् । य को नियमयुक्तानां तस्य त्यागवतं भवेत् ॥३.८ किं करिष्याम्यहं कस्य कोऽहं कीटकमात्रतः । इति भावयतः पुंसोऽकिञ्चनत्वं विधीयते ॥३७९
__ स्वकीययोषेङ्गितचित्तवृत्ति कृत्वा परस्त्रीषु च सन्निवृत्तिम् ।
योनिशं वाञ्छति जैनसूत्रं स्याद् ब्रह्मचर्य ननु तस्य धर्मः ॥३८ जोवो नास्तीति मन्यन्ते चार्वाकमतवेदिनः । स चेदस्ति ततो लोके प्रत्यक्ष्यः कि न दृश्यते ॥३८१ जीवो न वीक्ष्यते क्वापि पुण्यपापक्रिया कुतः । नास्ति ग्रामः कुतो मेरुर्नास्ति क्षेत्रं कुतोऽन्नता ॥३८२ धमाकारं जगत्सर्वमधोमध्योर्ध्वता कुतः । पापं न स्फुरणं चेदं गते तत्र कुतो जनः ॥३८३ जीवोऽस्तीति प्रभाषन्ते नैयायिकमताश्रिताः । गर्भादिमरणान्तेनास्तित्वं जोवे निरूपितम् ॥३८४ पिष्टोदकगुडैर्धात्यः शक्तिर्मद्यस्य जायते । यथा तथा सहोदभूतमेतेभ्यो जीवजन्मता ॥३८५ गतेषु तेष्वभिन्नत्वाज्जीवाभावो निरीक्ष्यते । इन्धने क्षीयमाणे हि न तिष्ठति हुताशनः ॥३८६ जीवपुद्गलयोरैक्यं भिन्नत्वं नैव कल्प्यते। यथा पुष्पे सुगन्धत्वं पृथग न च कदाचन ॥३८७
तपको पालता है, उसके तपोधर्म होता है। जी इन्द्रियोंके विकारसे विनिमुक्त है. उसके संयमधर्म होता है ।।३७६।। जिनके मनमें शीलधर्म स्थित है, ऐसे पात्रोंमें जो अपने द्रव्यके अनुसार दान देता है, और जो भावोंसे जैनमतका अनुरागी है, उसे जिनेन्द्रदेवोंने त्याग धर्म वाला कहा है ॥३७७।। जो कोई मनुष्य नियमयुक्त मनोवांछित वस्तुओंका सर्वथा त्याग करता है, उसके त्यागधर्म होता है। ॥३७८।। 'मैं किसका क्या करूँगा, कोटकमात्रसे अधिक मैं कौन हूँ', इस प्रकारको भावना करनेवाले पुरुषके आकिंचन्य धर्म पालन किया जाता है ॥३७९।। अपनी स्त्री में अपनी मनोवृत्तिको सीमित करके और परस्त्रियोंमें सत्य निवृत्तिको करके जो रात-दिन जैनसूत्रके पठन-पाठनकी इच्छा करता है निश्चयसे उसके ब्रह्मचर्य धर्म होता है ।।३८०।।
जीव नहीं है, ऐसा चार्वाक मतके जानकार मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि जीव है तो लोक में प्रत्यक्ष क्यों नहीं दिखाई देता है ।।३८१।। जब कहींपर भी जीव दिखाई नहीं देता है, तब फिर पुण्य-पापको क्रिया ही कहाँ संभव है ? जब ग्राम हो नहीं है, तब मेरु कहाँ संभव है । जब खेती ही नहीं है, तब अन्न कहाँसे पैदा हो सकता है ॥३.८२॥ यह सर्वजगत् धूमके आकार है, फिर इसमें अधस्ता, मध्यता और ऊर्ध्वता कहाँसे हो सकती है। यहाँ पाप नामक कोई वस्तु नहीं है, यह सब स्फुरण (कम्पन या हलन-चलन) मात्र है, उस स्फुरणके विलीन हो जाने पर जीव कहाँ रहता है। ॥३८३|| नैयायिक मतावलम्बी लोग 'जीव है' ऐसा कहते हैं, उन लोगोंने गर्भसे आदि लेकर मरण तक जीवका अस्तित्व निरूपण किया है ।।३८४।। उन लोगोंका कहना है कि जैसे पीठो, जल, गुड़ और धातकी-पुष्पोंके संयोगमें मद्यकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार इन पृथिवी आदि भूतोंसे जीवका जन्म हो जाता है ।।३८५। उन भूतोंके विनाश हो जानेपर उनसे अभिन्न होनेके कारण जीवका अभाव देखा जाता है अर्थात् भूतोंके विनाश होनेपर जीवका सद्भाव नहीं दिखाई देता । जैसे कि इन्धनके समाप्त हो जानेपर अग्निका कोई सद्भाव नहीं रहता है ।।३८६॥ जीव और पुद्गलमें एकता ही है, भिन्नता नहीं कल्पना की जा सकती है, जैसे कि पुष्पमें जो सुगन्धपना है, वह उनसे कभी भी पृथक् नहीं माना जा सकता ॥३८७।। ईश्वरसे प्रेरित हुआ यह आत्मा तीनों
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