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________________ श्रावकाचार-संग्रह ईश्वरप्रेरितो ह्यात्मा त्रिलोकेषु प्रवर्तते । एकोऽपि नैकतां याति राजेव सरसि स्थितः ॥ ३८८ पापं पुण्यं सुखं दुःखं सिद्धस्थानं पुनर्भवः । पुनर्मोक्षं पुनर्जन्म सांखिनो मतमोदृशम् ॥ ३८९ क्षणिकत्वं जगद्विश्वं सर्वे भावा तथैव च । सन्तानमालिकां धत्तं संवात्मा सौगते मते ॥ ३९० कमंप्रकृतिहेतुत्वाज्जीवो भुङ्क्ते निरन्तरम् । शुभाशुभमयं वस्तु स्वर्गे मोक्षे भवे स्थितः ॥ ३९१ आत्मप्रकृतिमापन्नो वैकुण्ठे गच्छति ध्रुवम् । जीवस्य कारणं कर्मकृतिर्जीवं न मुञ्चति ॥ ३९२ इयं च वैष्णवी माया भुवनत्रितये स्थिता । तस्याः कर्तृत्वहर्तृत्वं भट्ट रुक्तमिदं वचः ॥३९३ जैनेन्द्रवादिना प्रोक्तं यदि जोवो न विद्यते । ततस्त्वयाऽत्र जीवस्य नामोच्चारं कृतं कुतः ॥ ३२४ विद्यमानपदार्थानां केन नामानि लुप्यते । अविद्यमानवस्तूनां केन नामानि दीयते ॥ ३९५ जीवोsस्त्यनादिसंशुद्धो दर्शनज्ञानसंयुतः । सकर्मा भवभावाढ्यो मुक्तकर्मा निरञ्जनः ॥३९६ तानि कर्माणि नश्यन्ति जैनव्रतनिरूपणात् । मन्त्रप्रभावतो याति सकलं हि विषद्वयम् ॥३९७ यदि जीवस्य नास्तित्वं त्रैलोक्ये सचराचरे । वादं कः कुरुतेऽस्माभिः सार्धं पापमते ततः ॥ ३९८ यथा धनेश्वरो गेहं परित्यज्य गृहान्तरम् । संगच्छति तथा जीवो देहाद्देहान्तरं व्रजेत् ॥ ३९९ यथा रथात्पृथग्भूतं तुरङ्गयुगलं भुवि । यथा चम्पकसौरभ्यं भिन्नं तैलेषु वीक्ष्यते ॥ ४०० २४८ लोकोंमें प्रवर्तता है, जैसे कि सरोवरमें प्रतिबिम्ब रूपसे स्थित चन्द्रमा एक ही है, वह अनेकताको प्राप्त नहीं होता ||३८८|| पापके पश्चात् दुःख और उसके पश्चात् सुख, सिद्धस्थानके अनन्तर पुनर्भव और पुनर्भवके पश्चात् मोक्ष तथा मोक्षके पश्चात् पुनः जन्म, इस प्रकारसे सबका सदा चक्र चलता रहता है, ऐसा सांख्यका मत है || ३८९ || समस्त जगत् क्षणिक है, इसी प्रकार सभी पदार्थ क्षणिक हैं, वही सौगत (बौद्ध) मतमें, आत्मा है, उस क्षणसन्तानसे भिन्न कोई आत्मा नहीं है । ||३९०|| कर्म प्रकृतिके निमित्तसे जीव निरन्तर शुभ-अशुभ रूप वस्तुको स्वर्गमें, मोक्षमें और संसार में स्थित रहता हुआ भोगता है || ३९१ || यह जीव अपनी स्वाभाविक प्रकृतिको प्राप्त होकर निश्चयसे वैकुण्ठ में जाता है । जीवके परिभ्रमणका कारण यह कर्मप्रकृति है, वह कभी भी जीवको नहीं छोड़ती है || ३९२ || यह विष्णुकी माया तीन भुवनमें स्थित है, उसके ही जगत्का कर्तापना और संहारपना है, यह भट्टोंके द्वारा कहा गया वचन है || ३९३ ॥ किन्तु जिनेन्द्रदेवके मतको माननेवाले जैनोंने कहा - यदि संसारमें जीव नहीं है, तो फिर तुमने यहाँ जीवके नामका उच्चारण कैसे किया ? ||३९४ || क्योंकि संसारमें विद्यमान पदार्थोंके नामोंका कौन लोप कर सकता है और अविद्यमान वस्तुओंके नाम कौन दे सकता है || ३९५|| दर्शन -ज्ञान-संयुक्त जीव अनादि-सिद्ध है, वह जब तक कर्मोंसे संयुक्त है, तब तक सांसारिक भावोंसे युक्त रहता है, बौर जब कर्मोंसे विमुक्त हो जाता है, तब निरंजन बन जाता है || ३९६ || वे कर्म जैनव्रतोंके आचरणसे विनष्ट हो जाते हैं, जैसे कि मंत्र के प्रभाव से बहिरंग सर्पादिका विष एवं अन्तरंग कर्मरूप विष नष्ट हो जाते हैं || ३९७|| जो लोग जीवका अस्तित्व नहीं मानते हैं उनको ललकारते हुए ग्रन्थकार कहते हैं - हे पापबुद्धिशालिन्, यदि इस चराचर त्रैलोक्यमें तेरे मतानुसार जीवका अस्तित्व नहीं है तो फिर हमारे साथ वाद (शास्त्रार्थ) कौन करता है || ३९८ ॥ देख, मैं जीवका अस्तित्व सिद्ध करता हूँ — जैसे कोई धनवान् पुरुष अपने एक घरको छोड़कर दूसरे घरमें जाता है, उसी प्रकार जीव भी एक देहसे दूसरी देहमें जाकर वहाँ निवास करने लगता है || ३९९ ।। अथवा जैसे रथको खींचने वाले अश्व-युगल संसारमें रथसे पृथक्भूत होते हैं और जैसे चम्पक पुष्पोंको सुगन्धि तेलमें भिन्न देखी जाती है, तथा जैसे अंगिशलक (?) पक्षी स्थानका आश्रय करके चला जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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