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________________ श्रावकाचार-संग्रहः धर्मो भवेद्दर्शनशुद्धिबुद्धधा निशागमे भोजनवर्जनेन । सदाष्टषामूलगुणस्य भेदैनिषिद्धयोगान्नवनीतलेह्यात् ॥३६६ धर्मोऽन्यनारी-धनवारणेन शिक्षागुणाणुव्रतपोषणेन।। वै सत्यवाक्यप्रतिभाषणेन पात्रत्रयस्वीकरणान्नदानात् ॥३६७ यो जीवभक्षं न बित्ति जीवं निजायुधं यो न ददाति कस्य। वर्षागमे यो गमनं न कुर्याद् धर्मो भवेत्तस्य दशप्रकारात् ॥३६८ निन्दाऽऽक्रोशो ममंगालिश्चपेटपादाक्षेपो दुर्वचो दोषवावः ।। एतदुखं सह्यते येन पुंसा तेन प्राप्तं चोत्तमं सत्क्षमाङ्गम् ॥३६९ कठोरं कष्टदं वरं दृष्टं प्राणहरं वचः। यो न वदति धमिष्ठो मृदुता तस्य जायते ॥३७० सरलमनाः सरलमतिः सरलो वचनेषु सरलपरिणामः । सकलं सरलं पश्यति तस्य भवेदार्जवो धर्मः ॥३७१। सत्येन वाक्यं वितनोति लोके सत्येन कार्याणि करोति नित्यम् । सत्यप्रभा यो विदधाति वित्ते सत्यव्रतं तस्य भवेत्सदैव ॥३७२ मनःशौचं वचःशौचं कायशौचं बित्ति यः । तस्य शौचमयो धर्मो भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥३७३ अथ निर्लोभता शौचं यस्य चित्ते प्रवर्तते । श्लाघ्यस्त्रैलोक्यजीवानां स सुखी जायते तराम् ॥३७४ यः प्राणिषु दयां धत्ते संकोचयति यो मनः । यः पालयति नैर्मल्यं देवता स प्रजायते ॥३७५ तपो द्वादशभेदेन बाह्याभ्यन्तरदर्शनम् । विकारेन्द्रियनिर्मुक्तः संयमस्तस्य संभवेत् ॥३७६ भावोंसे धर्म होता है ।।३६५॥ सम्यग्दर्शनकी शुद्धि करनेसे, रात्रिके समय भोजन त्यागसे, सदा आठ मूल गुणोंके धारण करनेसे, तथा नवनीत भादि निषिद्ध लेह्य पदार्थोंके नहीं खानेसे धर्म होता है ।।३६६॥ पर-स्त्री और पर-धनके निवारणसे, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके पोषणसे, दूसरोंके प्रति सत्य भाषणसे और तीनों प्रकारके पात्रोंको पडिगाहन करके अन्नदान करनेसे धर्म होता है ॥३६७|| जो जीवभक्षी बिल्ली आदि जीवको नहीं पालता है, अपने अस्त्रशस्त्र आदि आयुध दूसरोंको नहीं देता है, वर्षाकालमें जो गमन नहीं करता है, उसके धर्म होता है और आगे वर्णन किये जानेवाले दश प्रकारोंसे धर्म होता है ॥३६८॥ जो पुरुष निन्दा, आक्रोश, मर्म-भेदी गाली, चपेटा (चपत, थप्पड़), पादाक्षेप (पैरोंकी ठोकर), दुर्वचन और दोषवाद इतने दुःखोंको सहन करता है वह उत्तम क्षमा रूप धर्मके प्रथम अंगको प्राप्त करता है ॥३६९।। जो धर्म-निष्ठ व्यक्ति कठोर, कष्ट-दायक, क्रूर, दुष्ट, और प्राण-हारक वचन नहीं बोलता है उसके मृदुता अर्थात् मार्दवधर्म होता है ॥३७०|| जो सरल चित्त है, सरल बुद्धि है, सरल (मायाचारसे रहित) है, जिसके वचनोंमें सरल परिणाम है और जो सबको सरल देखता है, उसके आर्जव धर्म होता है.॥३७१।। जो लोकमें सत्य वाक्य बोलता है, जो नित्य ही सर्व कार्योको सचाईसे करता है, जो अपने हृदय में सत्यकी प्रभाको धारण करता है, उसके ही सदा सत्य व्रत होता है॥३७२॥ जो मनकी शुचिता (पवित्रता), वचनको शुचिता रखता है, उसके जन्मजन्ममें शौचमयी धर्म होता है ।।३७३।। तथा जिसके चित्तमें निर्लोभता रूप शौचधर्म प्रवर्तता है, वह त्रैलोक्यके जीवोंका प्रशंसापात्र होकर अत्यन्त सुखी होता है ||३७४।। जो सर्वप्राणियोंपर दया रखता है, जो अपने मनको संकुचित रखता है अर्थात् इधर-उधर भटकने नहीं देता है और जो निर्मलताको पालन करता है, वह देवता होता है ॥३७५॥ जो बाह्य आभ्यन्तर रूप बारह प्रकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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