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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २४५ धर्मो न यज्ञे हतजीववृन्दे कुशासने धर्मपदं न दृष्टम् । श्राद्ध गयायां न च धर्मभावो धर्मो न मांसाविकलत्रदानात् ॥३५७ गो-पण्डपाणिग्रहणे न धर्मो युक्तो न तीर्थास्थिनिपातनेन । गुडघृतोपस्कृतधेनुदानैरनेकधा पिप्पलपूजनैश्व ॥३५८ अनेन मिथ्यात्वपरिग्रहेण धर्मेण जीवो लभते न सिद्धिम् । धर्मो भवेज्जैनमतैकबुद्धचा धर्मो भवेद द्वन्द्वविनाशनेन । रत्नत्रयाराधनतोऽस्ति धर्मो धर्मो भवेद्दानचतुर्विधाङ्गः ॥३६० धर्मो भवेत्पञ्चमहाव्रतेन धर्मः षडावश्यकपालनेन । धर्मो भवेल्लक्षितसप्ततत्त्वाद् धर्मो भवेत्सिद्धगुणाष्टकेन ॥३६१ नवप्रकारस्मररोषनेन धर्मो भवेद धर्मदशाङ्गभावात् । एकादशाभिः प्रतिमाभियोगधर्मो भवेद द्वादशभिस्तपोभिः ॥३६२ चारित्रभेदात्रिदशप्रकाराद् धर्मो भवेत्पूर्वचतुर्दशाङ्गात् । धर्मो भवेत्पश्चदशप्रमाव-प्रध्वंसनात्योडशभावनातः ॥३६३ धर्मो भवेज्जीवदयागमेन धर्मो भवेत्संयमधारणेन । धर्मो भवेद्दोषनिवारणेन धर्मो भवेत्संज्जनसेवनेन ॥३६४ जिनस्य शास्त्रस्य गुरोः सदैव पूजासमभ्यासपदप्रणामैः । शुभ्रषया साधुजनस्य नित्यं धर्मो भवेच्चारविशुद्धभावैः॥३६५ यज्ञमें जीव-समूहके हवन करनेसे धर्म नहीं होता, कुशासन (मिथ्यामत) में धर्मका एक पद भी नहीं देखा जाता, गयामें श्राद्ध करनेपर धर्म-भाव नहीं है और न मांस आदिके तथा स्त्रीके दानसे ही धर्म होता है ।।३५७।। गाय और सांडका विवाह करानेसे धर्म नहीं होता, हरिद्वार आदि तीर्थोपर अस्थिविसर्जनसे धर्म नहीं होता गड-घतसे सम्पन्न पकवानोंसे और गौदानसे धर्म नहीं होता. और अनेक प्रकारोंसे पीपल-पूजनके द्वारा धर्म नहीं होता है।३५८। इस प्रकार ऊपर कहे गये मिथ्यात्वके ग्रहणरूप धर्मसे जीव सिद्धिको नहीं प्राप्त करता है। किन्तु जो मानव दश प्रकारके उज्ज्वल धर्मको धारण करते हैं वे मोक्षपद पाते हैं ||३५९|| एकमात्र जैनमत ही आत्म-कल्याणकारी है। ऐसी दृढ़ बुद्धिसे धर्म होता है, द्वन्द्व (कलह) का विनाश करनेसे धर्म होता है, रत्नत्रयकी आराधनासे धर्म होता है और चार प्रकारके दानोंको देनेसे धर्म होता है ॥३६०॥ पांचों महाव्रतोंके पालनसे धर्म होता है, छह आवश्यकोंके पालनेसे धर्म होता है, सप्त तत्त्वोंके चिन्तन-मनन और श्रद्धानसे धर्म होता है, तथा सिद्धोंके आठ गुणोंका चिन्तन करनेसे धर्म होता है ॥३६१।। नो प्रकारके काम-वेगोंके निरोधसे और नो शील-बाड़ोंके पालनसे धर्म होता है, धर्मके दशों अंगोंके धारणसे धर्म होता है, ग्यारह प्रतिमाओंके पालनसे धर्म होता है और बारह प्रकारके तपोंके आचरणसे धर्म होता है ॥३६२।। तेरह प्रकारके चारित्रको पालन करनेसे धर्म होता है, चौदह पूर्वोका अभ्यास करनेसे धर्म होता है, पन्द्रह प्रमादोंका विध्वंस करनेसे धर्म होता है और सोलह कारण भावनाओंको भानेसे धर्म होता है ।।३६३।। जीवदयाके करनेसे धर्म होता है, संयमके धारण करनेसे धर्म होता है, अपने दोषोंके निवारण करनेसे धर्म होता है और सज्जनोंकी सेवा करनेसे धर्म होता है ॥३६४।। सदैव जिनेन्द्र देवकी पूजा करनेसे, शास्त्रका अभ्यास करनेसे और गुरुके चरणोंमें प्रणाम करनेसे धर्म होता है। साधुजनोंकी नित्य शुश्रूषा करनेसे और सुन्दर विशुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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