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________________ २४४ श्रावकाचार-संग्रह दौर्जन्यं सह सज्जनेन कलहो विद्वज्जनैः स्यात्सम वस्त्रं जीर्णमलं कलङ्कमलिनं चित्तं कुविद्यामयम् । नो हर्षो न च भोजनं न च गुणो भोगो न शय्या न च स्नानं नो न कला न तोषवचनं पुंसो हि पापस्थितेः ॥३५० कोत्तिर्नाम गुणा यशः परिजना लक्ष्मीनिं घान्यता शास्त्रं सज्जनता परोपकरणं देवार्चनं सक्रिया। प्रीतिर्भोगसुखं गुरुप्रणमनं दानं कृपा संयमः एते तत्र न सम्भवन्ति रचिता पापेन यत्र स्थितिः ॥३५१ दुष्टत्वाद्विबुधापवादवचनैः स्त्रीबालगोहिसनैरन्यन्यासविलोपनैरशमनै तादिसंसेवनैः । दोषाणामतिजल्पनैः परिजनैः सत्यवतध्वंसनमन्त्रोच्चाटनकल्पनैरनुदिन पापं हि संजायते ॥३५२ यद्यवस्तु विरुद्धं तत्तत्सर्वच पापतो भवति । इति विज्ञाय जिनेन्द्र-प्रोक्तो धर्मोऽत्र संसेव्यः ॥३५३ धर्मो न मिथ्यात्वसमुदभवेन धर्मो न पञ्चोम्बरभक्षणेन । धर्मो न तीर्थाम्बुधिगाहनेन धर्मो न पञ्चाग्निसुसाधनेन ॥३५४ धर्मो न गोपश्चिमभागनत्या धर्मो मकारश्रयतो न भाति । न सागरस्नानजलेन धर्मो धर्मो न दृष्टो मधुपानतोऽत्र ॥३५५ धर्मो न मोहक्रियया हुताशाद् धर्मो न वीरस्य कथाप्रबन्धेः । कुपात्रदानेन कदा न धर्मो धर्मो न रात्री कृतभोजनेन ॥३५६ और मलमूत्रकी अधिकता भी पापसे ही होतो है ॥३४९॥ पापकी स्थितिमें दुर्जनता, सज्जनोंके साथ कलह, विद्वज्जनके साथ विद्रोह, जोर्णमलिन वस्त्र और कुविद्यायुक्त चित्त, प्राप्त होता है। पापके उदयसे न मनमें हर्ष होता है, न भोजन मिलता है, न गुण प्राप्त होते हैं, न भोग मिलते हैं, न सोनेको शय्या मिलती है, न स्नान करना ही पुलभ होता है, न कलायें प्राप्त होती हैं और न सन्तोषकारक वचन श्रवण ही प्राप्त होता है ॥३५०॥ जहां पापरचित स्थिति होती है, वहाँ कीर्ति, नाम-प्रसिद्धि, सद्-गुण, यश, परिजन, लक्ष्मी, धन-धान्य, शास्त्र-ज्ञान, सज्जनता, परोपकार करना, देव-पूजन करना, अन्य सत्-क्रियायें करना, प्रीति, भोग-सुख, गुरु-वन्दना, दान, दया और संयम, ये सब कुछ वहाँ संभव नहीं हैं ॥३५१।। स्वभावको दुष्टतासे, विद्वानोंके अपवाद-कारक वचन बोलनेसे, स्त्री, बालक और गौकी हत्या करनेसे, दुसरोंकी धरोहरोंको विलोप करनेसे, शम-भाव नहीं रखनेसे, अर्थात् क्रोधादि कषायरूप प्रवृत्तिसे, चूत आदि व्यसनोंके सेवनसे, दूसरोंके दोषोंको अधिक बोलनेसे, परिजनोंके साथ सत्यव्रतका विध्वंस करनेसे, और मंत्रोंके द्वारा दूसरोंका उच्चाटन करनेसे प्रतिदिन पापका सचय होता है ।।३५२॥ संसार में जो जो वस्तु अपनेको प्रतिकूल प्राप्त होती है, वह सब पापसे होती है, ऐसा जानकर इस लोकमें जिनेन्द्रभाषित धर्मका सेवन करना चाहिए ॥३५३।। मिथ्यात्वके बढ़ानेसे धर्म नहीं होता, पंच उदुम्बर फलोंके भक्षण करनेसे भी धर्म नहीं होता, तीर्थों (गंगादिके घाटों) पर तथा समुद्र में अवगाहन करनेसे धर्म नहीं होता, पंचाग्नि तप करनेसे भी धर्म नहीं होता, गायके पिछले भागको नमस्कार करनेसे धर्म नहीं होता, मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोंके सेवनसे धर्म नहीं होता, सागरके जलसे स्नान करनेपर धर्म नहीं होता और न इस लोकमें मधु-पानसे धर्म देखा जाता है ॥३५४-३५५॥ मोहवाली क्रिया करनेसे धर्म नहीं होता, अग्निमें हवन करनेसे धर्म नहीं होता, वीर पुरुषोंकी कथायें कहनेसे धर्म नहीं होता, कुपात्रोंको दान देनेसे कदापि धर्म नहीं होता और रात्रिमें भोजन करनेसे धर्म नहीं होता ।।३५६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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