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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २३९ याप्योपवासनियमवतशास्त्रपाठशीतोष्णचारिसहनादितपांसि नित्यम् । कार्याणि संयमधरेण निजात्मशक्त्या कष्टान्यतीव विदधाति हि शक्तिलोपः ॥३०३ भोजने चोपकरणे च शयने चासने तथा । पादचारे चोपसर्गे भवितव्यं समाधिना ॥३०४ अथ सर्वास्ववस्थासु समाधिर्गुरुरेव वा । वैयावृत्त्यं यथायोग्यं दशधा तन्यते बुधैः ॥३०५ विधा सेवा विधातव्या जिनशास्त्रमहात्मनाम् । षडावश्यकमादाय पालनीयं जितेन्द्रियैः ॥३०६ क्वचिद्गीतं वाद्यं क्वचिदपि च नृत्यं क्वचिदपि क्वचिद् ग्रन्थारम्भः क्वचिदपि च दण्ड्या रसगतिः । क्वचित्पूजा स्नानं क्वचिदपि च रासः क्वचिदपि प्रभावश्चेत्येवं भवति जिनमार्गे बहुविधः ॥३०७ कुर्वन्ति धर्मधवणं यतात्मानो ये श्रावकास्ते न भ्रमन्ति संसृतौ। इति स्वरूपं यदिह प्रवर्तते प्रपूर्वकं तद्वचनं समीयते ॥३०८ यः पञ्चसु नमस्कारो यो रत्नत्रयपूजकः । सर्वसत्त्वानुकम्पो यो वात्सल्यं तस्य तन्यते ॥३०९ इति स्थिता षोडशभावनायां ये साधवश्चारुचरित्रभाजः। बध्नन्ति ते तीर्थकरस्य गोत्रमायुस्तथा नाम च मुक्तिपन्थाः ॥३१० सम्बन्धी भोग हैं, उनके परित्यागकी विधि करना चाहिए ॥३०२॥ एकाशन, उपवास, नियम, व्रत, शास्त्र पठन, शीत, उष्ण और चर्या आदि परिषह सहन करना आदि तप संयम-धारक पुरुषको अपनी आत्मशक्तिके अनुसार नित्य हो करना चाहिए। क्योंकि जो पुरुष अपनी शक्तिका लोप करता है अर्थात् उपवास, व्रत-धारण और तपश्चरण करने में शक्तिको छिपाता है, उनके करनेमें झूठी असमर्थता बतलाता है, वह भविष्यमें अतीव कष्टोंको प्राप्त होता है ॥३०३।। ज्ञानी पुरुषको भोजनमें, उपकरणमें, शयनमें, आसनमें, पादचार अर्थात् पैदल चलने में और उपसर्ग आनेपर समाधिसे युक्त होना चाहिए ॥३०४॥ अथवा सभी अवस्थाओं में समाधि गुरु ही है अर्थात् गुरुके समान सन्मार्ग दिखानेवाली है. इसलिए ज्ञानीजनोंको दश प्रकारको वैयावत्य यथायोग्य करना चाहिए ॥३०५॥ जितेन्द्रिय पुरुषोंको जिनदेव, शास्त्र और गरुमहात्माओंकी त्रियोगसे सेवा करनी चाहिए । तथा छह आवश्यकोंको ग्रहण करके उसका पालन करना चाहिए ॥३०६।। कहींपर गीतगायन हो. कहींपर वाद्य-वादन हो. कहींपर नत्य-नर्तन हो. कहींपर शास्त्रोंका पठन-पाठन हो. कहींपर रसोका त्याग किया जा रहा हो, कहींपर पूजा की जा रही हो, कहींपर जिन-स्नान (अभिषेक किया जा रहा हो) और कहींपर रास (धार्मिक नाटक) किया जा रहा हो , इस प्रकारसे जिन मार्गमें वहुविध प्रभावना होती है ॥३०७॥ जिनकी आत्मा संयत है ऐसे जो श्रावक धर्मवचनोंका श्रवण करने में प्रयत्न करते हैं, वे संसारमें परिभ्रमण नहीं करते हैं। इस प्रकार उपसर्ग पूर्वक अर्थात् प्रकृष्ट वचन 'प्रवचन' कहे जाते हैं, यह प्रवचनका स्वरूप है। जो ऐसे प्रवचनमें प्रवर्तन करते हैं, उनके प्रवचन भक्ति कही जाती है ॥३०८|| जो पंचपरमेष्ठियोंके चरणोंमें नित्य नमस्कार करता है, जो रत्नत्रयधर्मकी पूजा करता है और जो सर्व प्राणियोंपर अनुकम्पाभाव रखता है, उसके वात्सल्यभाव विस्तारको प्राप्त होता है ॥३०॥ इस प्रकार सोलह भावनाओंमें सुन्दर (निरतिचार) चारित्रके धारक साधुजन स्थित होते हैं, वे तीर्थंकर नामकर्म, तीर्थंकरका गोत्र और तीर्थकरकी आयुको बाँधते हैं। ऐसे जोव ही मुक्ति-पथके पथिक हैं और इस प्रकारका आचरण करना ही मोक्षमार्ग है ॥३१०॥ जो सर्वज्ञदेवका दर्शन नहीं करते हैं, न गुरुकी वन्दना करते हैं, न पात्र-दान देते है, न पंचनमस्कार मंत्ररूप अक्षरोंका साधन (जाप, ध्यान) करते हैं, न कोई सुकृत (पुण्य कार्य) करते हैं, न इष्ट शास्त्रोंका श्रवण करते हैं, न तत्वोंका अधिगम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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