SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ भावकाचार-संग्रह एवं मुनीनां प्रभवन्ति येषां सप्तद्धयस्तेऽखिलभव्यलोकान् । आशीर्वचोभिः प्रभुतां नयन्ति ते धावका ये हि नता गुरूणाम् ॥२९५ नैनं विहाय मतमस्ति गुणप्रकाशो नान्येषु संभवति निश्चय एष यत्र । सम्यवत्त्वशुद्धिरतुला भवति स्म तत्र दृष्टया विना न खलु सिद्धचति मोक्षमार्गः ॥२९६ संघस्य यथायोग्यो विनयो भावेन येन करणीयः। तं भावमाचरन्तो मुनयो गच्छन्ति परमपदम् ॥२९७ तच्छीलं प्रतिपालयन्तु यतिनो नाप्तातिचारक्रियं यद्देवाः प्रणमन्ति यच्च कुरुते दूरं न सिद्धास्पदम् । येनादायि विवेकबुद्धिरणये येन स्मरो जीयते येनोपात्तजिनप्रभावविधिना लोकस्थितिर्वीक्ष्यते ॥२९८ अर्हद्दर्शनतो धर्मो धर्मादागमचिन्तनम् । आगमाज्ञानसंप्राप्तिर्ज्ञानात्कर्मक्षयो भवेत् ॥२९९ राज्यं परीवार इलादिभोगश्चित्तं शरीरं विभवः कलत्रम् । एतानि वस्तूनि चलन्ति सर्वाण्यहंद्धवः शाश्वत एव धर्मः ॥३०० इति स्थिता चेतसि यस्य चिन्ता संवेगभावो भवतिस्म तस्य । अर्हत्पदे यस्य रुचि वैद्वा संवेगचिन्तामणिरस्ति तस्य ॥३०१ कर्पूरपुष्पागुरुचन्दनाद्या नितम्बिनी कामरसानुविधा। यमीकृता ये च शरीरभोगास्तेषां परित्यागविधिविधेयः ॥३०२ पात्र (धारक) हए ।।२९४।। इस प्रकार जिन मुनियोंके तपके प्रभावसे सप्त ऋद्धियां प्राप्त होती हैं वे अपने आशीर्वादरूप वचनोंसे समस्त भव्य लोगोंको प्रभुता प्राप्त कराते हैं। जो ऐसे गुरुजनोंको नमस्कार करते हैं, वे ही श्रावक कहे जाते हैं ॥२९॥ 'जैन मतको छोड़कर दूसरा कोई मत श्रेष्ठ नहीं है, अन्य मतोंमें यथार्थ गुणोंका प्रकाश ही संभव नहीं है, ऐसा जिसके दृढ़ निश्चय है, उसके ही सम्यक्त्वकी अनुपम शुद्धि होती है। सम्यग्दर्शनके बिना निश्चयसे मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं होता है ।।२९६॥ हमें 'भाव-पूर्वक संघका यथायोग्य विनय करना चाहिए' इस प्रकारके विनयभावका आचरण करनेवाले मुनि परमपदको प्राप्त करते हैं ॥२९७।। साधुलोग उस शीलका भली-भाँतिसे पालन करते हैं, जिसमें कि अतिचार क्रियारूप दोष अल्पमात्र भी नहीं लगता है। ऐसे निरतिचार शीलवतोंके पालन करनेवाले पुरुषोंको देव प्रणाम करते हैं, उन शीलवतके पालन करनेवालोंको सिद्धालय दूर नहीं है। जिसने व्रत मर्यादाके लिए विवेक बुद्धि ग्रहण की है, और जिन्होंने कामदेवको जीता है जिन धर्मके प्रभाव-द्वारा लोकस्थितिको देखते हैं ।।२९८।। अर्हन्तदेवके दर्शनसे धर्म होता है, धर्मसे आगमका चिन्तन होता है, आगम-चिन्तनसे ज्ञानावरणीय कर्मका नाश होकर ज्ञानकी प्राप्ति होती है और ज्ञानसे सर्वकार्योफा क्षय होता है ।।२९९|| राज्य, कुटुम्ब-परिवार, पृथ्वी आदि सम्पत्ति इन्द्रियोंके भोग, चित्त, शरीर, वैभव और स्त्री ये सभी वस्तुएं चल (अस्थिर) हैं, कि अर्हन्मुखोद्भूत धर्म ही शाश्वत (नित्य ) है ॥३०। इस प्रकारको चिन्ता जिसके चित्तमें स्थित है, उसके संवेगभाव होता है अथवा अर्हन्तदेवके चरणोंमें जिसकी रुचि होती है उसके संवेगरूपी चिन्तामणिरत्न होता है ॥३०१॥ कपूर, पुष्प, अगुरु, चन्दन आदि, काम-रससे भरी हुई स्त्री और जो संयमित शरीर. १. अणिराणिवदक्षानकीलसीमात्रिषु द्वयोः । इति विश्वः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy