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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २३७ .... ... ... ... ... .... .... ... ... ... .... ... ... .... .."तस्य भवति रस परित्यागः ॥२८५ .... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ."विविक्तशय्यासनं तस्य ॥२८६ ।। ध्यानोपवासनियमैः शमदमसंयमैः श्रुताभ्यासैः । व्रतनियमतपश्चरणैः कायक्लेशो यतेर्भवति ॥२८७ प्रमादवशतो यस्य तपोहानिः प्रजायते । गुरूपदेशतस्तस्य प्रायश्चित्तं प्रवर्तते ॥२८८ तपोदर्शनचारित्रज्ञानेषु विनतिर्भवेत् । नित्यं संयमिनो यस्य विनयस्तस्य प्रवर्तते ॥२८९ वैयावृत्त्यं दशधा यस्तनुते संयमिमुनीन्द्राणाम् । संभवति वैयावृत्त्यं तत्तपोयोगिनः सकलम् ॥२९० स्वाध्यायं पञ्चविघं वेलामालोक्य यो ऋषिः कुरुते । कायोत्सर्गेण समं फलति विधानं तदा तस्य ॥२९१ एवं द्वादशधा तपः प्रतिदिनं कुर्वन्ति ये योगिनस्तेषामध्रिषु सेवनविधि श्रद्धापरा ये जनाः । तेषां नास्ति भवार्णवे प्रपतनं धर्मप्रसंगादहो धर्मो लोकहितो महार्थसुखदो मोक्षप्रदोऽभीष्टदः ॥२९२ विस्तीर्णा श्रुतसागरेण मुनिना बुद्धः समृद्धिः कृता नानाकोष्ठगतानभेदसहिता शब्दार्थभावाङ्किता। चारित्रेण समृद्धिवृद्धिरनघा विद्युच्चरस्यास्थिता जाता वैक्रियिको समृद्धिरतुला विष्णोः कुमारस्य च ॥२९३ देहस्था पिहितास्रवस्य मलजोत्पन्नौषद्धिर्यतेः सम्पन्नव रद्धिरात्ततपसो विष्वाणनाम्नो मुनेः । श्रोषणेन बलधिरङ्ग-जनिता प्राये गतिं कुर्वता जातोऽक्षीणमहानससमृद्धर्भाजनं श्रीधरः ॥२९४ रसोंका त्याग करता है, अथवा एक, दो आदि रसोंका प्रतिदिन त्याग करता है, उसके रस परित्याग तप होता है ।।२८५।। जो साधु एकान्त मठ, मन्दिर, वन और गिरि-कन्दराओंमें शयन-आसन करता है उसके विविक्त शय्यासन नामका तप होता है ॥२८६।।' ध्यान, उपवास, नियम, शम, दम, संयम, शास्त्राभ्यास, व्रत-नियम, और तपश्चरणके द्वारा साधुके कायक्लेश तप होता है ॥२८७।। जिसके प्रमादके वशसे तपकी हानि हो जाती है, उसके गुरुके उपदेशसे प्रायश्चित्ततप होता है ।।२८८।। जिस संयमी मुनिके तप, दर्शन, चारित्र और ज्ञानमें विनय होती है, उसके विनयतप होता है ॥२८९|| जो दश प्रकारके संयमी मुनीन्द्रोंकी वैयावृत्त्य करता है, उस तपोयोगीके पूर्ण वैयावृत्त्य संभव होता है ॥२९०॥ जो ऋषि स्वाध्याय कालको देखकर पांच प्रकारके स्वाध्यायको कायोत्सर्गके साथ करता है, तब उसका सर्वविधान सफल होता है ।।२९१।। इस प्रकार जो योगिजन प्रतिदिन बारह प्रकारके तपको करते हैं, उन चरणोंमें उपासना-सेवा आदिको जो श्रद्धा-परायण श्रावक जन करते हैं अहो, उनका धर्मके प्रभावसे भव-समुद्रमें पतन नहीं होता है। क्योंकि धर्म लोक-हितकारी है, महान् अर्थ और सुखदायक है, और अन्तमें अभीष्ट मोक्षको देता है ॥२९२॥ __ जिन ऋद्धियोंका श्रुतसागरमुनिने तत्त्वार्थसूत्रकी टीकामें विस्तारसे वर्णन किया है, उनमें बुद्धि ऋद्धिके कोष्ठगत अन्न आदिके समान अनेक भेद शब्द, अर्थ और भावसे अंकित किये हैं, उनकी निर्दोष समृद्धि-वृद्धि चारित्रके द्वारा होती है। देखो-विद्य च्चरके आकाशगामिती' ऋद्धि प्राप्त हुई, और विष्णुकुमारके वैक्रियक ऋद्धि प्राप्त हुई ।।२९३।। पिहितास्रवमुनिके शरीरस्थ मलसे औषध ऋद्धि प्राप्त हुई, विष्वाणनामक मुनिके तपके प्रभावके रसऋद्धि प्राप्त हुई, श्री षेण मुनिके अंग-जनित बलऋद्धि प्राप्त हुई और श्रीधरमुनि अक्षीणमहानस ऋद्धिके १. मूल में दो श्लोक प्रतियोंमें उपलब्ध नहीं है, शास्त्रानुसार दोनोंका अर्थ लिखा गया है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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