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________________ २३६ श्रावकाचार-संग्रह इत्थं परीषहसहा मुनयो भवन्ति तेषां पदद्वयनमस्करणाय योऽभूत् । तस्यापि संभवति चेतसि धर्मवृद्धिः सौख्यास्पदा निखिलसाधुजनस्य कर्ता ॥२७४ अकृपासत्यस्तेयाब्रह्ममहार्थेषु या भवेद्विरतिः । सा भवति यस्य पुंसो महाव्रती कथ्यते सद्भिः॥२७५ हस्तचतुष्टयसीमामार्ग शोधयति चक्षुषा यश्च । तस्येर्यापथशुद्धिर्भवति मुनेनिर्विकारस्य ॥२७६ हृदयानन्दं जनयति कटुकं परिहरति निष्ठुरं त्यजति । श्रवणसुखं यो जल्पति भाषासमितिर्भवेत्तस्य ॥२७७ यो याचते न भुक्तिं दातारं गच्छमानमावासम् । अभिलषति सत्समाधि तस्य भवेदेषणाशुद्धिः ॥२७८ आदाने निक्षेपे वस्तु प्रतिलेखं यो ऋषिस्तनुते । तस्य तनुजीवरक्षामागमशुद्धिर्यतित्वं स्यात् ।।२७९ कायोत्सर्ग विधानं यो धत्ते शोलसंयमाधारम् । उपचरति मोक्षमागं तस्य तपो निर्मलं जातम् ॥२८० भवनिधना यस्य मनोवचनतनूनां च संभवेद गुप्तिः । तस्याव्ययपदपन्था अर्पयति निरञ्जनं स्थानम् ॥२८१ सप्तघटीमध्यगतं भव्यावासे प्रकल्पितं चान्नम् । यो गृह्णाति विशुद्धं सोऽनशनी चारणैः कथितम् ॥२८२ जिह्वास्वादविमुक्तं निर्दोष निर्मलं यथोत्पन्नम् । यो भोजनं विषत्ते लघ्वाहारी स मन्तव्यः ॥२८३ एकद्विवचितुर्थावासानाक्रम्य पञ्चमे भुक्तिम् । यः कुरुते तस्य मतं स्ववृत्तिसंख्या तपश्चरणम् ॥२८४ प्रकारसे बाईस परीषहोंको सहन करने वाले जो मुनिजन होते हैं, उनके दोनों चरणोंमें नमस्कार करनेके लिए जो तत्पर रहता है, उसके मनमें सुखका स्थान रूप धर्म वृद्धि होती है, और ऐसा श्रावक समस्त साधुजनका कर्ता अर्थात् साधु-मार्गका बढ़ाने वाला है ।।२७४|| अदया (हिंसा), असत्य, स्तेय (चोरी), अब्रह्म और महापरिग्रह इन पाँचों पापोंमें जिसके विरती होती है, वह पुरुष सज्जनोंके द्वारा महाव्रती कहा जाता है ।।२७५।। जो गमन करते समय आँखसे चार हाथकी सीमारूप मार्गको शोधता है, उस निर्विकार मुनिके ईर्यापथ शुद्धि होती है ।।२७६।। जो कटुक वचनका परिहार करता है और निष्ठुर वचनका भी त्याग करता है, तथा हृदयको आनन्दकारी और कानोंको सुखकारी वचन बोलता है, उसके भाषासमिति होती है ।।२७७।। जो दाताके घर जानेपर भी उससे भोजनकी याचना नहीं करता है, किन्तु सत्समाधिकी अभिलाषा करता है, उसके एषणा शुद्धि होती है ।।२७८।। जो ऋषि ग्रहण करते समय या रखते समय वस्तुका प्रतिलेखन करता है, उसके शरीर और जीव-रक्षा करने वाली आगम शुद्धि और साधुता होती है ।।२७९|| जो शील और संयमका आधारभूत कायोत्सर्गको करता है, वह मोक्षके मार्गपर चलता है उसके ही निर्मल तप होता है ।।२८०।। जिसके भवका अन्त करनेवाली मन वचन कायको गुप्ति होती है, उसके ही अव्ययपदका पन्थ (मोक्षमार्ग) निरंजन स्थान (शिवपद) को अर्पण करता है ।।२८१। जो भव्य पुरुषके घरमें सात घड़ीके भीतर बनाया गया विशुद्ध अन्न ग्रहण करता है, उसे चारण ऋद्धिधारियोंने अनशन व्रती कहा है ।।२८२॥ जो जिह्वाके स्वादसे रहित, निर्दोष निर्मल और अपने लिए नहीं बनाये गये भोजनको करता है, वह लघुआहारी मानना चाहिए ॥२८३।। जो एक, दो, तीन और चार गृहोंका उल्लंघन करके पांचवें घरमें भोजन करता है, उसके वृत्ति परिसंख्या नामक तपश्चरण माना गया है ।।२८४॥ (जो साधु दुग्ध, घृत, लवण आदि सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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