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________________ भावकाचार-संग्रह सर्वज्ञानवलोकनं न च गुरुं नो पात्रदानस्थिति नों पञ्चाक्षरसाधनं न सुकृतं शास्त्रेष्टनाकर्णनम् । नो भावाधिगमो न हर्षपदवी नो सज्जनाभ्यागतिश्वेष्टा स्यादिति यस्य बालमरणं तद्वेदितव्यं बुधैः ॥३११ पुत्रा मित्रकलत्रबान्धवजना धान्यं धनं सम्पदा क्षेत्रोद्यानतडागमन्दिरपुरं भोगोपभोगक्रिया। एतत्कस्य भविष्यतीति कथयन्मूर्छा प्रपन्नो भवेद् यो ना तस्य तु बालबालमरणं सम्पद्यते नान्यथा ॥३१२ मिथ्यात्वाभिमतं कषायपटलं मोहानुरागेरितं हित्वा भोगकलत्रसम्पदमितं पञ्चाक्षसौख्यं तथा । सम्यक्त्वं विदधाति दोषरहितं यो मानसे शर्मदं तस्यागच्छति पण्डितोत्यमरणं सर्वज्ञसेवाङ्कितम् ॥३१३ संसारव्यवहारभञ्जनकरं मोक्षस्वरूपप्रदं तुर्यध्यानविलीनचित्तगमनं पापेभपश्चाननम् । लब्ध्वाऽनन्तचतुष्टयं शिवपदं प्राप्नं निभं शाश्वतं नित्यं पण्डितपण्डितोत्थमरणं पुंसो हि सम्पद्यते ॥३१४ देवो दोषविनिर्मुक्तस्तद्वाक्यं हिंसनोज्झितम् । निर्ग्रन्था यत्र गुरवस्तत्र सम्यक्त्वलक्षणम् ॥३१५ नैसर्गिक स्वभावोत्थमपरं चोपदेशनम् । द्वयोर्नाम न यस्यास्ति मिथ्यात्वं तत्र संभवेत् ॥३१६ (परिज्ञान) करते हैं, न हर्ष-पदवी धारण करते हैं, न सज्जनोंका आदर-सत्कार करते हैं, ऐसी चेष्टा जिस जीवकी होती है ज्ञानीजनोंको उसका बालमरण जानना चाहिए ॥३११।। मेरे ये पुत्र, मित्र, स्त्री, बान्धवजन, धन, धान्य, सम्पदा, खेत, उद्यान, तालाब, मन्दिर, नगर और भोग-उपभोग क्रियाके साधन; ये सब कल किसके हो जावेंगे? ऐसा कहता हुआ जो पुरुष मूर्छाको प्राप्त होता है, उसके बाल-बालमरण प्राप्त होता है, यह बात अन्यथा नहीं है ॥३१२।। जो मिथ्यात्वसे संयुक्त, मोह और अनुरागसे प्रेरित कषाय-पटलको छोड़कर तथा भोगोपभोगरूप स्त्री-सम्पत्ति और पाँचों इन्द्रियोंके सुखका त्यागकर अपने मानसमें शाश्वत सुखदायी दोष-रहित निर्मल सम्यक्त्वको धारण करता है, उसको सर्वज्ञसेवासे युक्त पडितमरण प्राप्त होता है ॥३१३।। संसारके व्यवहारका भंजन करनेवाला, मोक्षके स्वरूपको देनेवाला, पापरूपी हाथीका मर्दन करनेके लिए पंचानन (सिंह)के सदृश, चौथे शुक्लध्यानके द्वारा चित्तके गमनरूप चंचलताको विलीन करनेवाला, अनन्तचतुष्टयका लाभ कराके शाश्वत नित्य शिवपदको प्राप्त करानेवाला पंडितपंडितमरण केवलज्ञानी पुरुषको प्राप्त होता है। भावार्थ-बालबालमरण महामिथ्यात्वी पुरुषोंके, बालमरण भद्रप्रकृतिके और अविरतसम्यक्त्वी जीवोंके, बाल-पंडितमरण देशव्रती गृहस्थोंके, पंडितमरण संयमी मुनिजनोंके और पंडितपंडितमरण केवलज्ञानियोंके होता है ॥३१४॥ जो सर्व दोषोंसे रहित देव होते हैं, उनके वाक्य ही हिंसासे रहित होते हैं और सर्वपरिग्रहसे रहित ही सच्चे गुरु हैं, जिस पुरुषमें ऐसा दृढ़ श्रद्धान है, वहींपर सम्यक्त्वका लक्षण समझना चाहिए ॥३१५॥ जिसके स्वभावसे उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक और गुरु आदिके उपदेशसे प्राप्त होनेवाला दुसरा अधिगमजसम्यक्त्व, ये दोनों ही नहीं हैं, वहाँपर मिथ्यात्व हो सम्भव होगा ॥३१६॥ अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय और तीन प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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