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________________ २३३ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार 'अहंद्देवं नमस्कृत्य नान्यदेवे नमस्कृतिः । संघवात्सल्यसंयुक्तो भावनाङ्गप्रभावकः ॥२५३ नाम्नामेकदशानां यो नामैकमपि पालयेत् । उत्तमश्रावको भूत्वा लभते सोऽव्ययं पदम् ॥२५४ मूले स्कन्धे च शाखायां डालके ग्लौञ्छके फले। यादृशी जायते लेश्या तादृशी सिद्धिरुच्यते ॥२५५ रौद्रध्यानप्रवृत्तेमधुपलरसनाज्जीवहिंसानुषङ्गाद दुष्टात्मा दुष्टभावो नरकबिलगतिर्जायते कृष्णलेश्यः। आतंध्यानप्रबन्धात्पररमणिवशान्न्यासलोपात्परस्य क्रूराङ्गः क्रूरचेताः पशुभवरसिको जायते नीललेश्यः ॥२५६ मायाभ्यासप्रसङ्गादगणितवचनात्साघुदोषप्रकाशान्मिथ्यान्धश्चण्डकर्मा जगति हि मनुजोऽत्येति कापोतलेश्यः । मिष्ठो धर्ममूत्तिः स्वजन-परजनस्योपकारप्रकर्ता विद्याभ्यासाङ्गसाङ्गी भवनपतिरसौ जायते पोतलेश्यः ॥२५७ सच्चारित्रोपचारादनुगततपसः षोडशोपात्तभावाद धर्मध्यानोपयोगात्सकलजिनपतिर्जायते पालेश्यः । शुक्लध्यानप्रयोगात् कलुषितकरणात् पुण्यपापक्षताङ्गो दृष्टिज्ञानप्रगल्भ्यात्परमशिवपदं जायते शुक्ललेश्यः ॥२५८ सिवाय अन्य देवको नमस्कार नहीं करता है, संघके वात्सल्यभावसे संयुक्त है, सम्यक्त्वके प्रभावना अंगका प्रभावक है तथा जो श्रावकके ग्यारह प्रतिमारूप नामोंमेंसे एक भी नामका पालन करता है, वह उत्तम श्रावक हो करके अविनाशी पदको प्राप्त करता है ॥२५१-२५४॥ किसी फलवाले वृक्षके मूल, स्कन्ध, शाखा, डाली, फलोंका गुच्छा और फलको प्राप्त करने में जिसकी जैसी लेश्या होती है, उसके उसी प्रकार सिद्धि कही गई है। भावार्थ-इस श्लोकमें कृष्णादि छहों लेश्यावालोंके भावोंकी ओर संकेत करके उनका उसी लेश्याके अनुसार कुफल और सुफलको पानेको सूचना दी गई है।।२५५।। मधु और मांसके रसास्वाद से होने वाली जीव हिंसाके अनुसंगसे रौद्रध्यानकी प्रवृत्ति होती है और उससे कृष्ण लेश्यावाला होकर दुष्ट भावों वाला दुष्ट जीव नरकके बिलोंमें जाकर उत्पन्न होता है। आर्तध्यान के सम्बन्धसे, परस्त्री सेवनके बससे परकी धरोहरके लोप (हड़प ) करनेसे कर शरीर और क्रूर चित्तवाला नील लेश्याका धारक जीव पशुभवका रसिक होता है अर्थात् आर्तध्यानी नील लेश्या वाला जीव पशु योनिमें उत्पन्न होता है ॥२५६॥ मायाके अभ्यास (आधिक्य) के प्रसंगसे, व्यर्थके अगणित वचनोंके उच्चारणसे, साधुओंके दोष प्रकाशित करनेसे, जीव मिथ्यात्वसे अन्धा और चण्ड कर्म वाला जो मनुष्य होता है वह कपोत लेश्याका धारक है। जो धर्ममें स्थित है, धर्ममूर्ति है, स्वजन और परजनका उपकार करने वाला है, विद्याओंके अभ्यासको करने वाला है, वह पीतसे श्यामल जीव भुवनपति (इन्द्र चक्रवर्ती आदि) होता है ॥२५७|| उत्तम चरित्रके आचरणसे, तपश्चरण करनेसे, षोड़श कारण भावनाओंके चिन्तवनसे, और धर्मध्धानके उपयोगसे पद्मलेश्यावाला जीव जिनपति (तीर्थकर) होता है। शुक्ल ध्यानके प्रयोगसे, रसोंके परित्यागके द्वारा इन्द्रियोंको क्षीण करनेसे, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्रबलतासे पुण्य-पापका क्षय करने वाला शुक्ल लेश्याका धारक परम शिवपदको प्राप्त करता है ।।२५८|| जो आत्म कल्याणके लिए प्रतिमास प्रत्येक पर्वके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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