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________________ २३२ श्रावकाचार-संग्रह गुग्गलकं चक्कधरं गज्जरकं मूलकं गिलोटं च । यो भक्षयति स पापी कथितो जिनशासनाभिज्ञैः ॥२४१ मद्यं परिहरणीयं मांसदोषेण संयुतं मधुना । एषामष्टाविंशति मूलगुणानां विचारिता युक्तिः ॥२४२ विभावसौ ज्वलति निक्लिष्टदर्शने सकर्कशे वचसि रजस्वलास्पृशि। सविड्धरे जनपथि राजवर्चसि त्यजेयुरापणधरासु भोजनम् ॥२४३ अनस्तमितशुद्धाम्बु पञ्चाक्षरजिनेक्षणम् । दया जीवस्य यस्यास्ति सोऽपि श्रावक उच्यते ॥२४४ न श्रुता यैर्वताचारविचारनियमस्थितिः । जिनश्रुतिगुरुत्पन्नास्ते स्थिता नामधारकाः ॥२४५ ये गहीत्वा व्रतादीनां संयमनियमस्थितिम् । पालयन्ति न भोगान्धास्ते स्थिताः स्थापनाधराः ॥२४६ श्रावकाचारसंयुक्ता आगमज्ञा गुणार्थिनः । दानपूजापरा ये स्युस्ते स्थिता द्रव्यधारकाः ॥२४७ भावतो भावसम्पन्ना द्रव्यतो द्रव्यतत्पराः । येऽभीष्टा द्रव्यभावाभ्यां ते स्थिता भावधारकाः ॥२४८ एवं चतुर्विधाः प्रोक्ताः श्रावका जिनशासने । द्वयोनं दृश्यते सिद्धिद्धयोः सम्यक्त्वकारणम् ॥२४९ उपासकाश्च सद्-दृष्टिः श्रेष्ठी साधुही वणिक । दाता च श्रावको जैनो भव्यो भावक उच्यते ॥२५० धर्मोपासनया युक्तो रत्नत्रयसमन्वितः । कथोपाख्यानसबुद्धिः शत्रु-मित्रसमप्रभा ॥२५१ द्वादशवतसम्पूर्णो निश्चयव्यवहारभाक् । जिनमार्गसमुद्धर्ता जैनशास्त्रविचक्षणः ॥२५२ शंखालू, पिडालू, सूरणकन्द और कचालू इन पाँच प्रकारके कन्दोंका श्रावक नियमसे त्याग करता है ।।२४०।। गुग्गुलक (गूगल) चक्कधर (कांदा, प्याज) गाजर, मूली और गिलोट (गिलोय) इन पाँचको जो खाता है उसे जिनशासनके ज्ञाताओंने पापी कहा है ।।२४१।। मांस दोषसे संयुक्त मधुके साथ मद्यका परिहार करना चाहिए । इन अट्ठाईस मूलगुणोंकी यह युक्ति विचार की गई है ।।२४२।। अग्निके जलनेपर, निकृष्ट वस्तु या व्यक्तिके देखनेपर, कर्कश वचनके सुननेपर, रजस्वला स्त्रीके स्पर्श करनेपर, जनमार्गके कोहरासे युक्त होनेपर, राजवर्चस्वके होनेपर और अप्रमाणित और हाट-दुकानकी भूमिपर श्रावक भोजनको नहीं करे ॥२४३।। अनस्तमितभोजन, (सूर्यास्तके पूर्वका भोजन), शुद्ध (वस्त्र गालित) जल, पंच परमेष्ठियोंका दर्शन और जीवकी दया ये कार्य जिसके होते हैं, वह भी श्रावक कहा जाता है ॥२४४।। जिन पुरुषोंने व्रतोंका आचार-विचार और नियमकी स्थिति जिनशास्त्रोंसे और गुरुजनोंके मुखसे नहीं सुनी है, वे नाम-धारक श्रावक हैं ॥२४५।। जो व्रतादिकोंके संयम और नियमका स्थितिको ग्रहण करके पीछे भोगान्ध होकर उसका पालन नहीं करते हैं, वे स्थापनाधारी श्रावक हैं ।।२४६।। जो श्रावकके आचरणसे संयुक्त हैं, आगमके ज्ञाता हैं, गणोंके इच्छुक हैं और दान-पूजनमें तत्पर हैं, वे द्रव्यनिक्षेप धारी श्रावक हैं ।।२४७।। जो भावकी अपेक्षा भाव-सम्पन्न हैं और द्रव्यको अपेक्षा द्रव्य में तत्पर हैं, जो द्रव्य और भावसे अभीष्ट हैं, अर्थात् दोनोंसे सम्पन्न हैं. वे भाव-धारक श्रावक हैं ।।२४८।। इस प्रकार जिनशासनमें चार प्रकारके श्रावक कहे गये हैं। इनमेंसे आदिके दो श्रावकोंके सिद्धि नहीं दिखाई देती है और अन्तिम दो श्रावकोंकी सिद्धि सम्यक्त्वकारणक हैं ॥२४९|| श्रावकको उपासक, सद्-दृष्टि, श्रेष्ठी, साधु, गृही, वणिक्, दाता, जैन, भव्य और श्रावक भी कहते हैं ॥२५०।। जो धर्मको उपासनासे युक्त है, रत्नत्रय धर्मसे समन्वित है, कथा और उपाख्यान सुननेसे सद्-बुद्धिवाला है, शत्रु और मित्रमें समान बुद्धि रखता है, श्रावकके सम्पूर्ण बारह व्रतोंको पालन करता है, निश्चय और व्यवहारका धारक या ज्ञाता है, जिनमार्गका उद्धारक है, जैनशास्त्रोंमें कुशल है, अर्हन्तदेवको नमस्कार करनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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