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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २११ अदन्तधावनोऽस्नानः स्थितिभुक्तिरचेलता। प्रपाल्याः पञ्चसमितिषडावश्यकसंयुताः ॥२३० वामहस्तं न्यसेन्मध्ये दक्षिणं चोपरि स्थितम् । मस्तकं जानुसंयुक्तं पञ्चाङ्गनतिरुच्यते ॥२३१ मलमूत्रपरित्यागे भोजने मैथुने तथा । सर्वज्ञपदपूजायां पञ्चजोषाः प्रकीर्तिताः ॥२३२ . प्राणिनां सुख-दुःखानि संभवन्ति भवे भवे । अष्टौ कष्टेन लभ्यन्ते दश' वार्तापि दुर्लभा ॥२३३ पट्टकं निश्चलं कृत्वा मनःकृत्वाऽतिनिश्चलम् । अर्हद्देवं नमस्कृत्य ततः सामायिकी क्रिया ॥२३४ पूर्व देवार्चनं कृत्वा ततः संशृणुते वृषम् । मुनर्वचनमाकर्ण्य श्रावकोऽणुवतस्थितिः ॥२३५ नवनीतापक्वपयोभृङ्गीसन्धानकान्यच्छिन्नान्नम् । अप्रासुकजलपानं मधुदोषाः सम्भवन्तीमे ॥२३६ करीरं कोमलं विल्वं कलिंगं तुम्बिनीफलम् । बदरीफलजं चूर्ण सन्त्याज्यं फलपञ्चकम् ॥२३७ करीरचिचिनीपुष्पमरणोवरुणोद्भवम् । पुष्पं सुखिजनोत्पन्न प्रहेयं पुष्पपञ्चकम् ॥२३८ नालीसौवर्चलिकालुनीयकरडगुल्मकोत्पन्नम् । यः पञ्चविधं शाकं परिहरति भवति सः स्वर्गी ॥२३९ रक्तालुकशङ्खालुकपिण्डालुकसूरणोत्थकन्दानि । कच्चालुकेन च सार्द्ध समुज्झति श्रावको नियमात् ॥२४० स्थितिभुक्ति (खड़े-खड़े भोजन करना) और अचेलता (दिगम्बरता) ये गुण पालन करना चाहिए। ये साधु पांच समिति, और छह आवश्यकोंसे संयुक्त होते हैं ॥२३०॥ वामहस्तको नीचे रखकर उसके ऊपर दक्षिणहस्तको रखकर दोनों जंघाओंके साथ मस्तकको झुकाना पञ्चाङ्ग नमस्कार कहा जाता है ॥२३॥ मल और मूत्रके परित्याग करते समय, भोजनकालमें, मैथुन-सेवनके समय और सर्वज्ञदेवके चरणोंकी पूजा करते समय मौन धारण करना चाहिए। ये पाँच जोष अर्थात् मोन कहलाते हैं ।।२३२॥ सुख-दुःख तो प्राणियोंको भव-भवमें सम्भव हैं. किन्त आठ बातें कष्टसे प्राप्त होती हैं और दशकी वार्ता भी दुर्लभ है ॥२३॥ विशेषार्थ-इस संसारमें इन दशका पाना अत्यन्त कठिन है-१. सपना, १. संज्ञिपना, ३. मनुष्यता, ४. आर्यपना, ५. सुगोत्र, ६. सद्-गात्र (उत्तम शरीर), ७. विभूति, ८. स्वस्थता, ९. सुबुद्धि और १०. सुधर्म । इनमें प्रारम्भके आठकी प्राप्ति तो कष्टसे होती है। किन्तु दशोंकी प्राप्तिकी बात तो अति दुर्लभ है। बैठनेके पाटेको निश्चल करके और मनको और भी अधिक निश्चल करके, तथा अर्हन्तदेवको नमस्कार करके फिर सामायिक-सम्बन्धी क्रिया करनी चाहिए ।।२३४।। श्रावक पहिले देव-पूजन करके, तत्पश्चात् मुनिके वचन सुनकर धर्मका उपदेश सुनता है और अणुव्रतोंको धारण करता है ।।२३।। नवनीत (मक्खन, लोनी), अपक्व दूध, भांग, काटे हुए फलोंका सन्धानक (अचार), अच्छिन्न, (साबूत) अन्न और (अप्रासुक जल-पान) ये पांच मधुत्यागके दोष होते हैं ॥२३६|| करीर (कैर), कोमल वेलफल, कलिंग (तरबूज), तुम्बिनीफल (तुम्बा), बदरीफलों (बेरों) का चूर्ण, इन पांच फलोंको त्यागना चाहिए ॥२३७।। करीर, चिचिनी(इमली-) पुष्प, भरणी-(घियातरोई) पुष्प, वरुण (वृक्षविशेष-) पुष्प और सहजनाके पुष्प, इन पांच प्रकारके पुष्पोंका त्याग करना चाहिए ॥२३८॥ नाली (कमल-नाल) सौवचंलिका (सूवापालक) लुनीय (पुष्पित शाक), करण्ड (स्वयं उत्पन्न तिलविशेष) और गुल्मक (चौलाई) इनसे उत्पन्न हुए पाँच प्रकारके शाकोंका जो परिहार करता है, वह स्वर्गका देव होता है ॥२३९॥ रतालू, १. जगत्यनन्तकहृषीकसङ्कले त्रसत्व'-संमित्वर मनुष्यतायता'। सुगोत्र सद्-'गात्र-विभूति वार्ता सुधी'.१°सुधर्माश्च यथाप्रदुर्लभाः ॥ (अनगारपामते) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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