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________________ २३० श्रावकाचार-संग्रह षडषिकचत्वारिंशत्साताऽहंतां सुगुणाः । शुभ्राश्च सिद्धाष्टगुणा आचार्याणां षट्त्रिंशत् ॥२१८ पञ्चाधिकविंशगुणा भवन्ति विद्याभूतामुपाध्यायाः । अष्टविंशतिगुणाढ्या जायन्ते साधवः शुद्धाः २१९ चतुस्त्रिशातिशयिकाः प्रातिहार्याष्टकान्विता । ज्ञानिनामहंतां श्रेणों वन्देऽनन्तचतुष्टयाः ॥२२० ज्ञानं दर्शनसम्यक्त्वे सूक्ष्मवीर्यावगाहकाः । अव्याबाघोऽगुरुलघू सिद्धाष्टगुणा इति ॥२२१ यत्याचारः श्रुताधारः प्रायश्चित्तागमान्वितः । योगो लोचनिको युक्तः स्व-परप्रतिबोधकः ॥२२२ जिनेश्वरपथ-भ्रष्टस्थापकस्तत्प्रभावकः । इत्याचाराष्टकं प्रोक्तं सर्वज्ञैः सर्ववेदिभिः ॥२२३ वीक्षाप्रभूतिलध्वीयप्रतिक्रमणकारकः । सविकारेन्द्रियातीतो जनन्याद्या नमस्कृतिः ॥२२४ पक्षे पक्षे बृहत्पाठः प्रतिक्रमणसाधकम् । मासे द्वये द्वयेऽतीते वन्दते च निषिद्धिकाम् ॥२२५ अन्यनामें विहारश्च चातुर्मासादनन्तरम् । इति वक्ति गणाधीशो दशधास्थितिकल्पकम् ॥२२६ षडावश्यकसम्पत्तिर्बाह्यं चाभ्यन्तरं तपः । षट्त्रिंशति गुणा एतेऽभूवन्नाचार्यदेहजाः ॥२२७ द्वादशाङ्गश्रुतोपेतान् दशधर्मसमन्वितान् । उपाध्यायानहं वन्दे सतपःसंयमानिमान् ॥२२८ त्याज्यमिन्द्रियजं सौख्यं धार्य पञ्चमहाव्रतम् । लोकभक्तभूशय्या गुणैरेतैश्च साधवः ॥२२० साधु तपोधन कहे जाते हैं ॥२१६॥ छह द्रव्योंका चिन्तवन और पांचों निग्रन्थोंकी वन्दना ये दोनों कार्य जिनके चित्तमें स्फुरायमान रहते हैं, वे परम पदको प्राप्त होते हैं ।।२१७।। अरहन्तोंके छयालीस सुगुण होते हैं, सिद्धोंके निर्मल आठ गुण होते हैं, आचार्योंके छत्तीस गुण होते हैं, विद्यावन्त उपाध्यायोंके पच्चीस गुण होते हैं, और शद्ध साधु अट्ठाईस गुणोंसे युक्त होते है।॥२१८-२१९॥ अरहन्तोंके चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और अनन्तचतुष्टय ये छयालीस गुण होते हैं, ऐसे ज्ञानी अरहन्तोंकी श्रेणीको मै नमस्कार करता हूँ ॥२२०॥ अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्व, अनन्तवीर्य, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व ये आठ सिद्धोंके गुण हैं ॥२२१।। आचाराष्टक, षडावश्यक, दश प्रकारका स्थितिकल्प और बारह तप ये छत्तीस गुण-धारक आचार्य होते हैं। उनमें आचाराष्टक इस प्रकार हैं-१. यतियोंके आचारका धारक होना, २. श्रुतका आधारवाला होना, ३. प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञाता होना, ४. त्रिकाल योगका धारक होना, ५. केशलोंच करनेवाला (दीक्षा-दाता) होना, ६. स्व-परका प्रतिबोधक होना ७. भ्रष्ट साधुको जिनेश्वरके मार्ग में स्थापन करना, और ८. जिनमागकी प्रभावना करना। सर्ववेदी सर्वज्ञोंने ये आचाराष्टक कहे हैं ॥२२२-२२३।। ये आचार्य दीक्षा आदिके लघु प्रतिक्रमणोंको कराते हैं, इन्द्रियोंके विकारोंसे रहित होते हैं, आदि जननी (जिनवाणी) को सदा नमस्कार करते हैं, पक्ष-पक्षमें (प्रत्येक पक्षमें) बृहत्प्रतिक्रमणपाठके साधक अर्थात् शिष्योंसे कराते हुए स्वयं करते हैं, दो-दो मासके व्यतीत होनेपर निषिद्धिक (तीर्थ, सिद्धक्षेत्र आदि) की वन्दना करते हैं, चातुर्मासके पश्चात् अन्य ग्राममें विहार करते हैं, वे गणके स्वामी आचार्य आचेलक्य आदि दश प्रकारके स्थितिकल्पको अन्य मुनियोंके लिए प्रतिपादन करते हैं। सामायिक, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक जिनको सम्पत्ति है, और छह प्रकारके बाह्य और छह प्रकारके अन्तरंग तपको करते हैं । आचार्योंके ये छत्तीस गुण होते हैं ॥२२४-२२७।। द्वादशाङ्गश्रुतसे संयुक्त, दश प्रकारके धर्मसे समन्वित, तप, संयम और यम (पंच महाव्रत) से युक्त ऐसे उपाध्यायोंकी में वन्दना करता हूँ ॥२२८॥ जिनके इन्द्रियज सुख त्याज्य है और पंच महाव्रत धारण करने योग्य हैं, केशलोंच करते हैं, दिनमें एक बार ही आहार करते हैं और भूमिपर शयन करते हैं, इन गुणोंसे युक्त साधु होते हैं ।।२२९।। उन साधुओको अदन्तधावन, अस्नान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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