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________________ २३४ श्रावकाचार-संग्रह ये कुर्वन्ति श्रेयसे संयमादि क्षोणीशय्याब्रह्मचर्योपवासान् । मासे मासे पर्वपर्वक्रमेण प्रख्यायन्ते पाक्षिका श्रावकास्ते ॥२५९ यावज्जीवं ये व्रता सन्ति साक्षीकृत्योपात्तास्ते सदा पालनीयाः । इत्थं प्रोक्ता सन्ति ये निष्ठितात्मा प्रख्यायन्ते नैष्ठिकाः श्रावकास्ते ॥२६० कायोत्सर्गे धर्मशास्त्रागमे वा ध्याने जाप्ये वीतरागार्चने वा। ये जायन्ते तत्परा वाङ्मनोऽङ्गैः प्रख्यायन्ते साधकाः श्रावकास्ते ॥२६१ एवं त्रिभेदाः कथिता मुनीन्द्रेस्ते श्रावकाः क्षायिकहेतुभूताः । देवं सुखं पार्थसुखं च भुक्त्वा व्रजन्ति मोक्षं चरणप्रसङ्गात् ॥२६२ हषीकलेश्यामदगर्वदोमिथ्याकषायव्यसनप्रमादैः । मिथ्यात्वकर्मास्त्रवशल्यरागैः प्रजायते जन्तुषु पापमुच्चैः ॥२६३ ये तिष्ठन्ति दशप्रकारमुनयश्लेषामुपास्तिकमाद् वैयावृत्त्यदशप्रकारविधिना तत्पापमेति क्षयम् । रोगग्लानतपोधनेशसकलाचारोपदेशप्रदस्याचार्यस्य जिनेन्द्रपाठमहिमोपाध्यायशिष्याङ्गयोः ॥२६४ संघस्यापि चतुविधस्य परमाराध्यस्य साधार्यतेः पञ्चाचारतपस्विनो गणभृतः शुद्धा मनोज्ञस्य च । भव्यश्रेणिकुलक्रमागतमुनेयें सेवनां कुर्वते ते सौख्याश्रयमावहन्ति वसुना सर्वोपकाराः प्रभुम् ॥२६५ तत्त्वार्थचिन्ता परलोकचिन्तनं सुपात्रदानं स्वजनोपकारता । सर्वज्ञपूजा-मुनिपादवन्दनस्तेभ्यो भवेज्जन्तुषु धर्मसंगमः ॥२६६ क्रमसे यथायोग्य संयमादिका पालन करते हैं, पृथ्वी पर सोते हैं, ब्रह्मचर्य पालते हैं और उपवास करते हैं वे पाक्षिक श्रावक कहे जाते हैं ॥२५९॥ जो गुरुओंकी साक्षीसे व्रतोंको ग्रहण किया ग्रहण किये हैं वे यावज्जीवन पालना चाहिए। इस प्रकारसे जो निष्ठावन्त आत्मा हैं बे नैष्ठिक श्रावक कहलाते हैं। उन नैष्ठिक श्रावकोंके भेदोंका वर्णन ऊपर किया गया है॥२६०॥ जो कायोत्सर्ग करने में, धर्मशास्त्रके अभ्यासमें, ध्यान करनेमें, मंत्रोंका जाप करने में, और वीतरागके पूजनमें मन वचन कायसे तत्पर रहते हैं, वे साधक श्रावक कहलाते हैं ॥२६१।। इस प्रकार मुनीन्द्रोंने कर्मक्षयके कारणभूत तीन भेदवाले श्रावक कहे हैं। वे चारित्रके प्रसंगसे देवलोक-सम्बन्धी सुखको और भूलोक-सम्बन्धी सुखको भोगकर मोक्षमें जाते हैं ॥२६२।। इन्द्रिय, लेश्या, मद, गर्व, इन दोषोंसे, मिथ्या भाषण, कषाय, व्यसन और प्रमादसे, तथा मिथ्यात्वसे, कर्मोके आस्रवोंसे, शल्योंसे और रागभावोंसे प्राणियोंमें उच्च पापका उपार्जन होता है ।।२६३॥ जो आचार्य, उपाध्याय आदि दश प्रकारके मुनि होते हैं उनकी उपासनाके क्रमसे वैयावृत्त्यके भी दश प्रकार (भेद) हो जाते हैं। इस दश प्रकारको वैयावृत्त्यके करनेसे उपर्युक्त करणोंसे उपार्जित पाप अक्षयको प्राप्त हो जाता है वे दश प्रकारके मुनि ये हैं-१ रोगसे ग्लान (पीड़ित) २ तपोधन (तपस्वी) ३ सकल चारित्रके उपदेश देने वाले आचार्य, ४ जिनेन्द्रोक्त श्रुतके पाठक उपाध्याय, ५ उनके शैक्ष्य शिष्य, ६ चतुर्विध संघ, ७ परम आराध्य साधु, ८ पंच आचारके धारक तपस्वी, ९ गण धारक, और १० मनोज्ञ इन दश प्रकारके भव्य श्रेणीरूप कुल क्रमागत मुनियोंकी जो सेवा-वैयावृत्त्य करते हैं, वे धनसे सर्वजीवोंके उपकार करने में समर्थ होकर सौख्यके आश्रयभूत मोक्षको प्राप्त करते हैं ।।२६४-२६५।। तत्त्वार्थका चिन्तन, परलोकका चिन्तन, सुपात्र दान, स्वजनोंका उपकार, सर्वज्ञ-पूजन और मुनिचरण-वन्दना, इतने कार्योंसे प्राणियोंमें धर्मका सचंयरूप संगम होता है। ॥२६६॥ क्षुधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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