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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार अनाचारोऽन्तरायाणां स्वदोषपरिजल्पनम् । नियमः शक्तितो यत्र प्रत्याख्यानं तदुच्यते ॥१३५ यत्र ध्यानचतुष्कस्य चिन्तनं लोकसंस्थितिः । चतुर्दशगुणस्थानं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥१३६ एते यस्य प्रवर्तन्ते स भवेन्मोक्षभाजनम् । एतेषां यस्य न श्रद्धा सोऽस्ति पापी भवे भवे ॥१३७ अष्टमूलगुणोपेतो हतव्यसनसप्तकः । रत्नत्रयपवित्र' यो वर्शनप्रतिमाविधिः ।।१३८ द्वादशवतसम्पत्तिगृहीतः प्रतिपालकः । सम्यग्दर्शनशुद्धात्मा स्याद व्रतप्रतिमाविधिः ॥१३९ सन्ध्यात्रये द्वयघटीपरिसंख्यया ये सामायिकं दशपरीषहदोषमुक्तम् । कुर्वन्ति जैनवदनं परिहत्य कोणे सर्वार्थसिद्धिपदवीं ननु ते लभन्ते ॥१४० स प्रोषधोपवासः स्याद्यो धत्ते निश्चलं मनः । स कर्मनिचयं हन्ति यो मोक्षसुखकारणम् ॥१४१ सचित्तसर्ववस्तूनां ध्वंसनं न करोति यः। सचित्तविरतः स स्याहयात्तिरनेकपा ॥१४२ परस्त्रीविमुखो यः स्याद्दिवामैथुनजितः । स्वदारसुखसन्तुष्टो रात्रिभक्तः स उच्यते ॥१४३ नितम्बिनीमैथुनरागसन्ततीदिवानिशं यो न करोति निश्चयात् । स ब्रह्मचारी कथितो जिनागमे जिनागमज्ञः परमात्मवेदकः ॥१४४ अष्टोत्तरशतहिंसाभेदविकाराणि नैव यस्तनुते । सारम्भः प्रारम्भः समारम्भः कुतो भवति ॥१४५ व्याख्यान किया जाय, वह भी प्रतिक्रमण है ॥१३४|| अन्तरायोंका आचरण नहीं करना, अपने दोषोंको कहना प्रत्याख्यान है और जहाँपर शक्तिके अनुसार नियम ग्रहण किया जाता है, वह भी प्रत्याख्यान कहा जाता है ॥१३५।। जहाँपर लोकके संस्थानसे खड़े होकर चारों धर्मध्यानोंका चिन्तवन किया जाय, और चौदह गुणस्थानोंका विचार किया जाय, वहाँ कायोत्सर्ग कहा जाता है ॥१३६।। ये समता, वन्दनादि छह आवश्यक जिसके प्रवर्तमान रहते हैं, वह मोक्षका पात्र होता है। जिसके इनकी श्रद्धा नहीं है, वह पापो भव-भवमें दुःख पाता है ।।१३७॥ ___जो आठ मूलगुणोंसे संयुक्त है, सातों व्यसनोंका त्यागी है और जो रत्नत्रयकी भावना रखते हुए सम्यग्दर्शनसे पवित्र है, वह दर्शनिक श्रावक है, यह पहिली दर्शन प्रतिमाकी विधि है ॥१३८|| सम्यग्दर्शनसे जिसकी आत्मा शुद्ध है, ऐसा श्रावक बारह व्रतरूप सम्पत्तिको ग्रहण करता है और उसका प्रतिपालक होता है यह दूसरी व्रतप्रतिमाकी विधि है ॥१३९॥ जो तीनों सन्ध्याओंमें दो-दो घड़ी कालके परिमाणसे परीषह-सम्बन्धी दश दोषोंसे रहित और जिनदेवके मुखका सामना छोड़कर एक कोने में बैठकर सामायिक करते हैं, वे निश्चयसे सर्वार्थसिद्धिकी पदवोको पाते हैं ॥१४०।। जो पर्वके दिन मनको निश्चल रखता है, वह प्रोषधोपवास नामक चौथी प्रतिमाका धारक है। यह प्रोषधोपवास कर्मोके समूहका नाश करता है और मोक्ष सुखका कारण है ॥१४१।। जो सर्वप्रकारकी सचित्त वस्तुओंका विनाश नहीं करता है और अनेक प्रकारसे उनकी रक्षा करता है वह दयामृति पुरुष पाँचवीं सचित्त-विरत प्रतिमाका धारक है ॥१४२।। जो परस्त्रियोंसे सर्वथा पराङ्मुख है और अपनी स्त्रीमें भी दिनको मैथुन-सेवनसे रहित है, ऐसा स्वदारसन्तोषी मनुष्य छठी रात्रि-भक्त प्रतिमाका धारक कहा जाता है ॥१४३।। जो दृढ़निश्चयी होकर अपनी स्त्रीके साथ भी दिन और रात्रिमें मैथुन-रागकी कोई भी क्रिया नहीं करता है, उसे जिनागममें जिनागमके ज्ञाता पुरुषोंने परमात्मस्वरूपका वेत्ता ब्रह्मचारी कहा है ॥१४४॥ जो श्रावक गृहारम्भ-सम्बन्धी हिंसाके एक सौ आठ भेदवाले विकारोंको नहीं करता है, उसके संरम्म, समारम्भ और आरम्भ कैसे हो सकता है। यह आठवा आरम्भ त्याग प्रतिमा है ॥१४५॥ बो १. उ पवित्राय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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