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________________ २२२ श्रावकाचार-संग्रह बाह्य चाभ्यन्तरं हन्ति यः परिग्रहलक्षणम् । स श्रीधर्मप्रभावेण कथ्यते निःपरिग्रहः ॥१४६ कुतकारितानुमतिना नाहारो येन गृह्यते पुंसा । भव्यः स एवं विदितो मुनिरिव विज्ञाततत्त्वेन ॥१४६ एकादशे नैष्ठिको ब्रह्मचारी यो विज्ञातो भावतत्त्वेन शुद्धः । तेनात्मीयं दृश्यते मोहजालं होनं कृत्वा वर्धमानं स्वरूपम् ॥१४८ एकादशप्रतिमया व्रतमाचरन्तो भव्या विशुद्धमनसो नितरां लभन्ते । सिद्धि समस्तकलुषाकृतिभावभिन्नं शुद्धावबोधसकलाष्टगुणैरुपाताम् ॥१४९ तारुण्यं तरलं श्रियोऽपि चटुला रूपं तथा गत्वरं मानुष्यं चपलं च जीवितमिदं नैति स्थिरत्वं कदा। साद्धं मित्रकलत्रबान्धवजनैः पुत्रास्ततोऽशाश्वताः धर्मः शाश्वत एव तिष्ठति विचिन्त्यैवं स्मरानित्यताम् ॥१५० नो भार्या न सुता न बान्धवजना नो सज्जना नो रिपु नों माता न पिता न भूपतिरयं नो चातुरङ्गं बलम् । नो शक्का न सुरा न पन्नगविभु! मन्त्र-यन्त्रादिकाः कालो संहरति प्रजासु निचयं रक्षाविधाने स्थितः ॥१५१ येनाजितं पूर्वभवान्तरे यत्तस्योपतिष्ठेदखिलं तदेव । क्षेत्रे यदुप्तं खलु लूयते तदुपाजितं वस्तु न नाशमेति ॥१५२ इत्थं विचार्य सकलं न हि कोऽपि लोके जीवस्य कर्मवशतो भ्रमतो भवाब्धौ। धर्म विहाय सदयं स दशप्रकारं सर्वज्ञवक्त्रविहितं परलोकमार्गम् ॥१५३ मूर्छा लक्षणवाले सभी बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंका त्याग करता है वह श्री धर्मके प्रभावसे अपरिग्रही कहा जाता है। यह नवी प्रतिमा है ।।१४६।। जिस पुरुषके द्वारा कृत, कारित और अनुमोदित आहार नहीं ग्रहण किया जाता है, वह भव्य पुरुष तत्त्वज्ञानी केवलीके द्वारा मुनिके समान कहा गया है। यह दशवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है ॥१४७।। जो ब्रह्मचारी भावस्वरूपसे उद्दिष्ट भोजनादिका त्यागी है, वह शुद्ध पुरुषोंके द्वारा नैष्ठिक श्रावक संज्ञावाला ग्यारहवीं प्रतिमाका धारी है। उसीके द्वारा मोहजाल होन करके अपना वर्धमान आत्मस्वरूप देखा जाता है ॥१४८॥ उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमाओंके द्वारा श्रावक-व्रतोंका आचरण करते हुए विशुद्ध चित्त भव्यपुरुष समस्त कलुषित भावोंको दूर करके शुद्धज्ञान आदि अष्टगुणोंसे सम्पन्न सिद्धि (मुक्ति) को निश्चयसे प्राप्त करते हैं ।।१४९।। यह तरुणाई तरल है, लक्ष्मी भी चटुल है, रूप भी विनश्वर है, मनुष्यपना भी चपल है और यह जीवन कभी स्थिरताको प्राप्त नहीं होता है। मित्र, कलत्र और बन्धुजनोंके साथ पुत्र भी अशाश्वत हैं, कभी साथ नहीं रहनेवाले हैं। एकमात्र धर्म ही शाश्वत नित्य रहता है, ऐसा विचार करके हे भव्य, तू अनित्य भावना स्मरण कर ॥१५०। जब काल इस जीवको लेकर चलने लगता है तब उसकी रक्षा करनेके लिए न भार्या समर्थ है, न पुत्र, न बान्धवजन, न सज्जन, न शत्रु, न माता, न पिता, न राजा, न चतुरंगिणी सेना, न इन्द्र, न देव, न शेषनाग समर्थ है और न मन्त्र-यंत्रादिक ही उसे बचाने में समर्थ हैं ॥१५१।। जिस जीवने पूर्वभवान्तरमें जो कुछ उपार्जन किया है, वही सब इस जन्ममें उसके उपस्थित होता है। खेतमें जो कुछ बोया जाता है, वही निश्चयसे काटा जाता है। उपार्जित वस्तु नाशको नहीं प्राप्त होती है ॥१५२॥ कर्मके वशसे भव-सागरमें परिभ्रमण करते हुए जोवका सर्वज्ञदेवके मुख-कमलसे प्रकट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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