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________________ श्रावकाचार-संग्रह स्थूलं वीर्घसरोवरं गुरुवकं वारिभ्रमो वर्तका __ स्वच्छव्यञ्जनता तरङ्गरचना भक्तं पयोजस्थितिः । वालि: पुष्करिका घृतं परिमलश्चैतत्समास्वादयन् प्रापर्दैववशाद्यशोधरनृपो भृङ्गावसानक्रियाम् ॥१२७ एकेन्द्रियत्वे तरुजातिजोवा द्वीन्द्रियत्वे कृमिजातयश्च । पिपीलिकास्त्रीन्द्रियजीवजात्या द्विरेफकाद्याश्चतुरिन्द्रियत्वे ॥१२८ पश्शेन्द्रियत्वे मनुजा भवन्ति प्राणेर्यथायोग्यतयेन्द्रियैश्च । इलाजलं तेजसवायुवृक्षा एते स्थिताः स्थावरपञ्चकत्वे ॥१२९ पञ्चेन्द्रियस्थावरपञ्चकत्वं यत्तद्विचार्य दशसंयमत्वम् । चित्ते निषि सकलं निषिद्धं तस्मान्मनोरक्षणमाचरन्तु ॥१३० लेश्यात्रयं परित्यज्य शुभलेश्यास्त्रयात्मिका । गद्यपद्यमयी वाणी सा स्तुतिः प्रोच्यते बुधैः ॥१३१ आमा सर्वेष सत्त्वेष रागद्वेषनिराकृतिः । आत्मनोपशमं यत्र सा समतोच्यते बुधैः ॥१३२ वसरं कृत्वा यत्र षोडश भावनाः । पञ्चाङ्गस्य नमस्कारो वन्दना सैव कथ्यते ॥१३३ फतदोषनिराकारश्चविचयचिन्तनम । यत्र रत्नत्रयाख्यानं सा प्रतिक्रमणस्थितिः॥१३४ - जिह्वाके स्वादवश मीन मारा गया, रूपसे पतंगा मारा गया और लक्ष्मीको स्थान विशेषभूमिवाली कमलिनीकी गन्धसे भौंरा मारा गया। ये सभी जीव प्रायः एक-एक इन्द्रियके सुख भोगनेके वशंगत होकर दुःखको प्राप्त हुए हैं ॥१२६।। सरोवर विशाल (लम्बा-चौड़ा) है, जल भी अगाध है, जलमें भंवर उठ रही है, जल, पक्षी हंस आदिसे युक्त है, स्वच्छ व्यंजनता रूप तरंगोंकी रचना हो रही है, भातरूप कमल पर स्थिति है, दालरूप कमलिनी है, घृतरूप सुगन्धित पराग है, इस सबका आस्वाद लेता हुआ भ्रमर जैसे कमलमें बन्द होकर अवसान क्रिया (मरण) को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सर्व प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न यशोधर महाराज उन भोगोंमें आसक्त होकर दैववशात् मरणको प्राप्त हुआ ॥१२७॥ कर्मोके वश हो करके ये जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें वृक्षजातीय अनेक प्रकारके जीवोंमें उत्पन्न होते हैं, द्वीन्द्रियपर्यायमें कृमिजातीय, त्रीन्द्रिय पर्यायमें पिपीलिकादि जातीय और चतुरिन्द्रिय पर्याय में भ्रमरादि जातीय जीवोंमें उत्पन्न होते हैं। पञ्चेन्द्रिय पर्यायमें मनुष्यादिमें उत्पन्न होते हैं। उक्त पर्यायोंमें यथायोग्य अपनी जातिके अनुसार इन्द्रियादि प्राणोंसे युक्त होते हैं । स्थावर-पंचकमें ये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वृक्ष अवस्थित हैं ॥१२८-१२९।। पञ्चेन्द्रिय और पञ्च स्थावरकायकी रक्षा करनेरूप दश प्रकारके संयमको रक्षाका विचार करना चाहिए । मनके निरोध कर लेनेपर सर्व विषयोंकी प्रवृत्ति रुक जाती है, इसलिए विवेकी जनोंको अपने मनका संरक्षण करना चाहिए ॥१३०।। कृष्ण, नील और कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओंका परित्याग कर पीत, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्या रूप गद्य-पद्यमयी वाणी जो भगवद्गुणगान करती है, ज्ञानियोंने उसे स्तुति कहा है ।।१३१।। जहाँ सर्वप्राणियों पर क्षमा-भाव है, राग-द्वेषका निराकरण और आत्मामें उपशम भाव है, ज्ञानोजन उसे समता या सामायिक कहते हैं ॥१३२।। देव-पूजनके अवसर पर पंचांग नमस्कार करना वन्दना कही जाती है। सोलह कारण भावनाओंका चिन्तन करना भी वन्दना है ।१३३।। किये हुए दोषोंका निराकरण करना, आज्ञाविचय आदि चारों धर्मध्यानोंका चिन्तन करना प्रतिक्रमण है और जहाँपर रत्नत्रयधर्मका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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