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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २१९ जिह्वारसस्वादनलम्पटत्वादन्योन्यसौख्यं वहते यतियः। अब्रह्मचर्य धरति स्वचित्ते मायां विधत्ते तपसो मिषेण ॥११९ ज्योतिष्कलावैद्यकमन्त्रवादैः रसायनर्धातुविवादयोगैः। गीतैश्च चूडामणिभिः कषायैरहनिशं यो गमयेत् वृथैव ॥१२० तपोधनो नो न महातपस्वी न संयमी नैव विशुद्धवृत्तिः । नो चागमज्ञो न विबोधवेत्ता प्रभण्यते तीर्थकरैः स पापी ॥१२१ शाकपिण्डप्रदानेन यो भव्यो दानमाचरेत् । भावशुद्धया मुनीन्द्राणां स प्रोक्तोऽमरनायकः ॥१२२ ये गच्छन्ति मुनीश्वरेण सदृशा भुक्तकचिन्तातुरा स्ते वार्या न कवापि केन सहसा प्रोक्तोऽपि मायात भोः। को दाताऽत्र न तिष्ठते व वलिता व्यावत्तियाताऽन्यतो मौलिक्या प्रतिमां समय॑ खल कि प्राा न यक्षादयः॥१२३ मित्रे कलत्रे विभवे तनूजे सौख्ये गृहे यत्र विहाय मोहम् । संस्मर्यते पञ्चपदं स्वचित्ते सल्लेखना सा विहिता मुनीन्द्रः ॥१२४ स्थूलव्रतवदणुवतमनुपालयति स्वभावतो यो वै। स्वर्गापवर्गफलभुग भवति स मनुजो जिनप्रतिमः ॥१२५ इभ्यास्पर्शवशान्मृतो गजपति!तात्कुरङ्गो मृतो जिह्वास्वादवशान्मृतो जलचरो रूपात्पतङ्गो मृतः । लक्ष्मीस्थानविशेषभूकमलिनीगन्धाद द्विरेफो मृत एकैकेन्द्रियसौख्यभोगवशगैः प्रायेण दुखं यतः ॥१२६ या बेंच करके धनको ग्रहण करता है वह श्रावक नहीं है ।।११८। जो साधु जिह्वारसके आस्वादनमें लम्पट होनेसे परस्पर सुखको धारण करता है, अब्रह्मका सेवन करता है, तपके मिषसे अपने चित्तमें मायाको रखता है, ज्योतिष, कला, वैद्यक, मंत्रवाद, रसायन, धातुवाद, विवादयोग, गीत, चूडामणि-प्रयोग और कषायोंके द्वारा जो रात-दिन व्यर्थ गवाता है, वह न तपोधन है, न महातपस्वी है, न संयमी है, न विशुद्धवृत्तिवाला है, न आगमज्ञ और न विशिष्ट ज्ञानका धारक है ऐसा व्यक्ति तो तीर्थंकरोंके द्वारा पापी कहा गया है ॥११९-१२१।। जो भव्य पुरुष भक्तिके साथ मुनीन्द्रोंको शाकपिण्डमात्र देकर दानका आचरण करता हैं, वह देवोंका स्वामी कहा गया है ।।१२२।। खानेको एकमात्र चिन्तासे पीड़ित जो पुरुष मुनि-सदृश वेष धारणकर मुनीश्वरके साथ भिक्षा प्राप्त करनेके लिए जाते हैं, उन्हें कदापि निवारण नहीं करना चाहिए । गोचरीके समय किसी पुरुषके द्वारा सहसा कहा जाय कि भोः साधु, इधर आओ, तब यह नहीं कहना चाहिए, कि यहां कोई दाता नहीं है, क्यों खड़े हो, अन्यत्र दूसरी ओर जाओ। मूल नायककी प्रतिमाकी पूजा करके क्या उनके यक्षादिक नहीं पूज्य होते हैं ? अर्थात् पूजे ही जाते हैं। सारांश यह कि यदि मुनिके साथ कोई वेषधारी भी आ जावे तो उसे भी भोजन करा देना चाहिए ॥१२३।। मित्र, स्त्री, वैभव, पुत्र, सौख्य और गृहमें मोहको छोड़कर अपने चित्तमें जो पंच परमपद स्मरण किये जाते हैं, मुनीन्द्रोंने उसे सल्लेखना कहा है ॥१२४॥ जो पुरुष स्थूल (महा.) व्रतोंके समान अणुव्रतोंका स्वभावसे पालन करता है, जिनदेवके तुल्य वह पुरुष स्वर्ग और मोक्षके फलको भोगनेवाला होता है ॥१२५॥ हथिनीके स्पर्शके वश गजराज मारा गया, गीतसे हरिण मारा गया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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