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________________ २१८ श्रावकाचार-संग्रह प्रतिग्रहोच्चासनपावशौचतवर्चनं तत्प्रणतिस्त्रिशुद्धिः। आहारदानं मुनिपुङ्गवाय नवप्रकारो विधिरेष उक्तः ॥११० सत्त्वं क्षमा भक्तिरलोभकत्वं विज्ञानता तुष्टिरतीवभावः । एते गुणा यस्य वसन्ति चित्ते तं श्रावकं तीर्थकरा वदन्ति ॥१११ वत्ते न दत्ते स्वयमेव दत्तं मुदाऽऽलये पात्रविचारबुद्धया। कुपात्रयोग्यं व्यसनं प्रवृत्तेस्त्रयो गुणा दातरि* संवसन्ति ॥११२ अन्नं चतुष्पथाऽऽयातं दानशालासमुद्भवम् । देवतायतनानोतं लिङ्गिभिर्दत्तमात्मनः ॥११३ पुराणं कथितं कच्चं सटितं पतितं तथा । अशुचिकरसंश्लिष्टं बालकोच्छिष्टमिश्रितम् ॥११४ शिल्पिविज्ञानिभिदत्तं दत्तं पाखण्डिभिस्तथा । संबलोपायनग्राममन्त्राकृष्टं च डङ्कितम् ॥११५ पक्वं मिथ्यानकैर्गाढमप्रासुकमनादरम् । वेलातीतं कृपाहीनं दृष्टिपक्कं मुनेः कृतम् ॥११६ वर्षासु दलितं नैशं दासीकृतमशोधितम् । अविनीतस्त्रिया पक्तं न दातव्यमुपासकैः ॥११७ पण्डितोऽहं गुणज्ञोऽहमिन्द्रोऽहमिति जल्पयन् । शास्त्रं प्रविष्य वित्तं यो गृह्णाति श्रावको न सः ११८ भोजन प्रदान किया जाता है, उनकी भक्ति की जाती है और अपने घरके द्वारपर खड़े होकर उनके आगमनकी प्रतीक्षा की जाती है, वह अतिथिसंविभागवत कहा गया है ।।१०९॥ श्रेष्ठ साधुको आता हुआ देखकर प्रतिग्रह करना (पड़िगाहना), ऊँचे आसनपर बैठाना, चरणोंका प्रक्षालन करना, उनका पूजन करना, उन्हें नमस्कार करना, मनवचनकायकी शुद्धि रखना और आहारदान करना यह नौ प्रकारकी विधि कही गई है ॥११०॥ सत्त्व, क्षमा, भक्ति, अलोभता, विज्ञानता, सन्तोष, और अतीव गाढ़श्रद्धा ये सात गुण जिसके चित्तमें रहते हैं, तीर्थंकरोंने उसे श्रावक कहा है ॥१११॥ देनेपर ही नहीं देता है, अपितु स्वयमेव ही देता है, घरपर आये हुए मनुष्यको पात्रके समान समझकर हर्षसे देता है, कुपात्रके योग्य देना जिसकी प्रवृत्तिका व्यसन है, ये तीन गुण दातारमें रहते हैं ॥११२॥ जो अन्न चतुष्पथ (चौराहा, बाजार) से आया हो, दानशालामें बनाया गया हो, देवताके स्थानसे लाया गया हो, अन्य लिंगी (मतावलम्बी) पुरुषोंके द्वारा अपने लिए दिया गया हो, गला हो, कच्चा हो, सड़ा हो, कहींपर पड़ा हो, तथा अशुचिहस्तसे संश्लिष्ट हो, बालकोंकी जूठनसे मिश्रित हो, शिल्पी (बढ़ई, लुहार) आदि कलाविज्ञानी जनोंके द्वारा दिया गया हो, मिथ्यात्वी पाखंडियोंके द्वारा दिया गया हो, संबल (मार्ग पाथेय), उपायन (भेंट) और अन्य ग्रामसे आया हो, मन्त्रसे आकर्षणकर मंगाया गया हो, डंकित (डंक लगा-घुना) हो, मिथ्यात्वी जनोंके द्वारा पकाया गया हो, अप्रासुक हो, अनादरपूर्वक दिया गया हो, समय बिताकर दिया गया हो, अथवा जिसकी कालमर्यादा बीत गयी है, दयासे होन हो, दृष्टि पक्व हो, मुनिके लिए बनाया गया हो, वर्षामें दला गया हो, रात्रिमें बनाया गया हो, दासी द्वारा पकाया गया हो, अशोधित हो, विनय-रहित स्त्रीके द्वारा पकाया गया हो, ऐसा आहार श्रावकको मुनियोंके लिए नहीं देना चाहिए ॥११३-११७॥ 'मैं पंडित हूँ, मैं गुणज्ञ हूँ, मैं इन्द्र हूँ' इस प्रकार कहता हुआ जो पुरुष शास्त्रको बांचकर * उ प्रतो दातुरिमे भवन्ति । १. उ कुत्सितं । २. उ मुनिशिने । ३. उ टि० प्रपठ्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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