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________________ पतोचोतन-श्रावकाचार २१७ अगोप्यताऽसत्करणं जनानामनर्थदण्डं निगवन्ति देवाः। ग्रन्सन्ततं तस्य निषेधनं स्यात् साऽनर्थदण्डाद-विरतिः प्रसिद्धा ॥१०० कलत्रपरिवारार्थ देशराज्यविचिन्तनम् । इत्थं प्रवर्तते यत्र तवार्तध्यानमुच्यते ॥१०१ मारयामि न रक्षामिक त्वं यास्यसि मेऽग्रतः । इत्थं प्रवर्तते यत्र तद रौद्रध्यानमुच्यते ॥१०२ शास्त्राभ्यासो भवेन्नित्यं देवार्चा गुरुवन्दनम् । इत्थं प्रवर्तने यत्र धर्मध्यानं तदुच्यते ॥१०३ । कदा मोक्षं गमिष्यामि कर्मोन्मूल्य निरन्तरम् । इत्थं प्रवर्तते यत्र शुक्लध्यानं तदुच्यते ॥१०४ आतंध्यानं परित्यज्य रौद्रध्यानं तथैव च । शुक्लध्यानस्य कार्याय धर्मध्यानं समाचरेत् ॥१०५ जिनस्याने पूर्वोत्तरदिशि च सामायिकविधिविधातव्यो भव्यनियमविहितैः संयमधरैः । कृपापात्रैर्ध्यानद्वयहननकार्योद्यमयुतस्त्रिकालजवेयकपदफलैर्भावसहितैः ॥१०६ उपोषधविधिः कतो नियमपूर्वकैर्भावकैजिनेन्द्र वि षोडशप्रहरबद्धसीमोधमैः। असंख्यबुधकामिनीविहितमङ्गलायां क्षपामिव विकर्तनो हरति कर्मबन्ध यकः ॥१०७ जीवेन यानि पापानि समुपात्तानि संसृतौ । संहरेत् प्रोषधस्तानि हिमवत्पद्मसञ्चयम् ॥१०८ भुक्ति मुनीन्द्र विधिवत्-गृहीते विधीयते भक्तिरुपासकेन । स्थित्वा निजद्वारि निरीक्षणायं प्रभण्यते सोऽतिथिसंविभागः ॥१०९ और धर्मोपदेशमें स्थित रहना ही क्रमशः दिग्व्रत और देशव्रत है । इनको सर्वज्ञदेवने दोनों लोकोंमें : आश्रयभूत और सुखमयी कहा है ॥९९॥ मनुष्योंके गुप्तकार्योंको गुप्त न रखनेको और सत्कार योग्य व्यक्तिका असत्कार करनेको गणधरदेव अनर्थदण्ड कहते हैं। ऐसे अनर्थदण्डका जहाँ निरन्तर त्याग हो, वह अनर्थदण्डविरति प्रसिद्ध है ॥१००। जहाँ स्त्री और कुटुम्ब-परिवारके लिए नाना देशों और राज्योंका चिन्तवन किया जाय और तदनुसार प्रवर्तन किया जाय, वह आर्तध्यान कहा गया है ॥१०१।। में तुझे मारूँगा, तेरी रक्षा नहीं करूंगा, तू मेरे आगेसे भागकर कहां जायगा, इस प्रकारकी प्रवृत्ति जहाँ हो, वह रोद्र ध्यान कहा गया है ॥१०२॥ जहाँपर नित्य शास्त्रोंका अभ्यास हो, देव-पूजन और गुरु-वन्दन किया जाय, ऐसी प्रवृत्ति जहाँपर हो वह धर्मध्यान कहा गया है ॥१०३॥ में कर्मोका उन्मूलन करके मोक्ष जाऊंगा. इस प्रकारके विचारोंका जहाँ निरन्तर प्रवर्तन हो वह शुक्ल ध्यान कहा गया है ।।१०४।। मनुष्यको आर्तध्यान और तथैव रौद्रध्यान छोड़कर शुक्लध्यानकी प्राप्तिके लिए धर्मध्यानका आचरण करना चाहिए ॥१०५॥ जिनदेवके आगे (सम्मुख) अथवा पूर्व या उत्तर दिशामें मुख करके नियम विधायक और संयमधारक भव्य पुरुषोंको आत और रौद्र इन दो ध्यानोंके हननकार्यके लिए उद्यम-युक्त, दयापात्र और भाव-सहित होकर सामायिक विधि करना चाहिए। यह सामायिक अभव्य पुरुषोंतकको ग्रेवेयकपदका फल प्राप्त कराती है, ऐसा त्रिकालज्ञाता सर्वज्ञोंने कहा है ॥१०६|| जिनेन्द्रभमि (सिद्धक्षेत्र, जिनालय आदि पवित्र स्थान) पर सोलह पहरकी सीमा बांधकर नियमपूर्वक भव्य जीवोंके द्वारा की गयी प्रोषधविधि कर्मोके बन्धको इस प्रकार हरण करती है, जैसे कि असंख्य, देवाङ्गनाओं (ताराओं) के द्वारा जिसकी मंगल आरती की जाती है, ऐसा चन्द्रमा रात्रिका अन्धकार नष्ट कर देता है ॥१०७॥ जीवने संसारमें परिभ्रमण करते हुए जो पाप उपार्जन किये हैं प्रोषधव्रत उन सबको इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे कि हिमपात कमलोंके समूहको नष्ट कर देता है ॥१०८।। विधिपूर्वक पडिगाहकर ग्रहण किये गये मुनीश्वरको उपासक (श्रावक) के द्वारा जो २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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