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________________ २१.. श्रावकाचार-संग्रह हिसांकलत्रमनिशं वजदङ्गिचित्ते छिद्राटिनीयमुपसंहरते न कि माम् । इत्थं विचार्य मुमुचे परमेश्वरेण हिसेतरा सुजगृहे जिननायकेन ॥९२ न प्रोच्यते 'मर्मवचः परस्य हिक्कारतो यत्र गुणाभिघातम् । विचार्यते वस्तु विवेकबुद्धया सत्यव्रतं तं कषयो वदन्ति ॥९३ यत्र कृतेऽलं क्रियते न कायं तस्य कृते नानुमतं न दीयते। न शिक्ष्यते तस्करमन्त्रसङ्गतिव्रतं तदस्तयमुशन्ति पण्डिताः ॥९४ रे मानव किं क्रन्दसि सुताड्यमानोऽसि दुर्जनैः सततम् । पाश्चात्यमिति विलोकय परधनहरणं मया चक्रे ॥९५ वेश्या परस्त्री विधवा कुमारी लेपादिका स्वीक्रियते न यत्र । स्वकीयभार्यागमनप्रवृत्तिः वतं चतुर्थं मुनयस्तदाहुः ॥९६ उपाय॑ते वित्तमनेकवारं तदेव वित्तं क्रियते प्रमाणम् । सन्तिष्ठमानं घ्रियते सुधर्मे यत्रावधिस्तस्य परिग्रहस्य ॥९७ तृष्णामूलमनर्थानां तृष्णा संसारकारिणो । तृष्णा नरकमार्गस्यात्तस्मात्तृष्णां परित्यजेत् ॥९८ या काष्टा व्यवहारकर्मकुशला देशः स छायो भवेद् योग्यं चारुतया प्रवृत्तिकरणं भव्यस्य कार्योत्सवात् । शेषं सर्वनिवृत्तिकारणपदं धर्मोपदेशे स्थितं सर्वज्ञेन समीरितं सुखमयं लोकद्वयस्यास्पदम् ॥९९ प्राणियोंके चित्तमें जाकर उसके छिद्रों (दोषों) को देखा करतो है। क्या यह मेरे समीप नहीं आयगी? अवश्य आयगी। मानों यह विचार करके ही परमेश्वर जिननायकके द्वारा हिंसारूपी राक्षसी छोड़ दी गई और अहिंसारूपी भगवती अंगीकार कर ली गई है ।।९२।। __जो दूसरेके प्रति मर्म-घातक वचन नहीं बोलता है, तिरस्कार-पूर्वक दूसरेके गुणोंका घात नहीं करता है, और विवेकबुद्धिसे वस्तुका विचार करता है, उसे ही कविजन पण्डित कहते हैं ॥९३।। जिसके लिए कोई भी कार्य भली भांतिसे नहीं किया जाता है, उसके लिए दूसरेकी अनुमतिके विना उसकी कोई भी वस्तु नहीं देनी चाहिए। जहाँपर चोरोंका मन्त्र और संगम नहीं सीखा जाय, अर्थात् चोरोंसे दूर रहा जाय, वहाँपर ही विद्वज्जन अस्तेयव्रत कहते हैं ।।९४।। अरे मानव, दुर्जनोंके द्वारा निरन्तर ताड़ा जाता हुआ तू क्यों चिल्लाता है ? करुण विलाप करता है ? अपने पिछले कार्यको देख, कि मैंने दूसरेका धन हरण किया है ॥९५।। जहाँपर वेश्या, परस्त्री, विधवा, कुमारी और लेप-चित्रा दिगत स्त्री स्वीकार नहीं की जाती है और अपनी भार्या में प्रति गमनकी प्रवृत्ति रहती है, उसे ही मुनिजन चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं ॥९६।। जो धन न्यायपूर्वक अनेक बार उपार्जन किया जाता है, वही धन प्रमाण किया जाता है और वहीं सुधर्ममें लगाया गया ठहरता है । जहाँ परिग्रहकी सीमा की जाती है, वही परिग्रह-परिमाणवत है ।।९७।। तृष्णा अनर्थोंका मूल है, तृष्णा संसारको बढ़ानेवाली है और तृष्णा नरकके मार्गपर चलानेवाली है, इसलिए तृष्णाका परिहार करना चाहिए ॥९८॥ जो दिशा व्यवहार कार्य कराने में कुशल हो, अर्थात् जिस दिशामें जाने-आनेपर धनादिका लाभ हो, अथवा जिस देशमें जाने-आनेपर धनकी आय (आमदनी) हो, उस दिशामें और उस देश में भव्य पुरुषको कार्यके उत्सवसे प्रवृत्ति करना योग्य है, सुन्दर है, उनके अतिरिक्त सभी दिशाओं में और देशोंमें गमनागमनकी निवृत्ति करना १. उ धर्म । २. हंकारतो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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