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________________ जीवन- यापार पूजा जिनेश्वरे योग्या सुपात्रे दानमुत्तमम् । स्थापनं पुरुषे भ्रष्टे श्रावकाणामयं विधिः ॥८२ येषां रागा न ते देवा येषां भार्या न तेर्षयः । येषां हिसा न तेऽग्रन्थाः कथयन्तीति योगिनः ।।८३ चारुचारित्रसम्पन्नो मुनीन्द्रः शीलभूषणः । आत्मनस्तारको जातो भव्यानां तारकस्तथा ॥८४ कृत्वा दिनत्रयं यावत्परीक्षां मुनिपुङ्गवे । यो नमस्कारमाधत्ते सम्यग्दृष्टिः स उच्यते ॥८५ यः श्रावको भावभरो धनाढयः परोक्ष्य पात्रं ददते न वानम् । स्तब्धो भवेत् स कृपणोजदृष्टः सोऽधोगति गच्छति को न दोषः ॥८६ * भ्रष्टेऽतिदुर्जनेऽसत्ये क्षुद्र के गुरुतल्पके' । होनसत्त्वे दुराचारे तस्मै शिक्षा न दीयते ॥८७ शान्ते शुद्ध सदाचारे गुरुभक्तिपरायणे । तत्त्वाद्भयलोकजे तस्मै शिक्षा प्रदीयते ॥८८ । यद्वित्तोपार्जने चित्तं यच्चित्तं स्त्रीनिरीक्षणे । तच्चित्तं यदि धर्मे स्यात्ततः सिद्धिः करस्थिता ॥८९ कायेन वाचा मनसापि यत्र जीवेषु हिंसां न करोति भव्यः । यद्यप्रमादी न ततोऽस्ति पापं बुधैरहिंसाव्रतमुच्यते तत् ॥९० पुंसो विशुद्धमनसो विकाररहितस्य कीदृशी हिंसा। उट्टिट्टीयकमनसि हिनैनो लग्नं वधू व (?) रजम् ॥९१ वह रौरव नरकमें पड़ता है, इसमें कुछ भी असत्य नहीं है ।।८१।। जिनेश्वरकी पूजा करता योग्य है, सुपात्रमें दान देना उत्तम है और पुरुषके भ्रष्ट होनेपर उसे धर्म स्थापन करना यह श्रावकोंकी विधि है ।।८२॥ जिनके राग है व देव नहीं हैं, जिनके स्त्री हैं वे ऋषि नहीं हैं और जिनके हिंसा है, वे निर्ग्रन्थ नहीं हैं। ऐसा योगिजन कहते हैं ।। ८३।। जो सन्दर चारित्रसे सम्पन्न है, शोल जिसका भूषण है, ऐसा मुनीश्वर ही अपनी आत्माका तारक है, तथा अन्य भव्य जीवोंका भी वह तारक है ।।८४॥ जो उत्तम मुनिके विषयमें भी तीन दिन तक परीक्षा करके पीछे नमस्कार करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहा जाता है ।।८५।। जो भाव-प्रधान, धनाढ्य श्रावक पात्रको परीक्षा करके उसे दान नहीं देता है, वह स्तब्ध (मानी) है, कृपण (कंजूस) है, अज्ञाजी है, ऐसा पुरुष अधोगतिको जाता है, इसमें कोई दोष नहीं है ।।८६।। जो पुरुष धर्मसे भ्रष्ट है, अति दुर्जन है, असत्यभाषी है, क्षुद्र है, गुरुका निन्दक है, हीनशक्ति है और दुराचारी है, उस व्यक्तिको शिक्षा नहीं देनी चाहिए ।।८७।। किन्तु जो शान्त है, शुद्ध है, सदाचारी है, गुरुको भक्तिमें परायण (तत्पर) है, और तत्त्वज्ञानसे उभयलोकका ज्ञाता है, उसे शिक्षा देनी चाहिए ॥८८॥ जो चित्त धनके उपार्जनमें जैसा संलग्न रहता है और स्त्रियोंके अंगोपांग देखने में लगा रहता है, वैसा हो चित्त यदि धर्ममें संलग्न हो जाय तो सिद्धि (मुक्ति) उसके हाथमें स्थित है ।।८९|| जो भव्य पुरुष जीवोंकी मन-वचन-कायसे हिंसा नहीं करता है, यदि वह अप्रमादी है, तो उसके हिंसा पाप नहीं है, इसे ही ज्ञानियोंने अहिंसाव्रत कहा है ॥९०।। विकार-रहित विशुद्ध चित्तवाले पुरुषके हिंसा कैसे सम्भव है ? उदासीन मनमें पाप नहीं ठहरता, जैसे कि........."रज नहीं लगता ॥९१॥ यह हिंसारूपी नारी निरन्तर * अहं. न श्रावको जैनो जैने पात्रे. गृहागते ।. . इत्थं यो भाषते वाक्यं मिथ्यादृष्टिः स उच्यते ॥८६ - उज्जैन भवनकी प्रतिमें यह श्लोक अधिक पाया जाता है। कुरुविके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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