SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१ अण्डजवण्उजरोमजचर्मजवल्कलजपश्चचेलानि । परिहत्य तणजचेलं यो चलीया भवेत्स यतिः॥४८ यो वचःकायचित्तेन स्यादिन्द्रियनिरोधकः । कषायविषयातीतः स ऋषिः परिकथ्यते ॥४९ न व्याप्यते महात्मा यो मोहनीयेन कर्मणा । कायक्लेशपरो नित्यमनगारः स उच्यते ॥५० संसारः पञ्चधा त्यक्तो येन भावेन सर्वथा। यो रक्षति सदाऽऽत्मानं योगीन्द्रः स च कथ्यते ॥५१ तपोधनानां तपसा सदृक्ष स्पर्धा दधानो कुरुते तपो यः । स चेत्कषायं मनसो न मुञ्चेत्ततो भवेदन्यभवे हि वेश्या ॥५२. या वातञ्जयभूपतिप्रियतमा जाताऽञ्जना सुन्दरी या लावण्यविशेषभावसहिता रूपं बभार स्वयम् । पूर्वोत्थव्यतिकर्मणो जिनपतिस्थानान्तरोत्थापनानिस्त्रिशोद्धवकोपतः कतिदिनैस्तत्याज तां वल्लभः ५३ येनामरसमक्षेण मारितो रावणो रणे । पूर्वनिदानबन्धेन स हरिनरकं गतः ॥५४ सौवीराहारवस्तुप्रमितरसपरित्यागितैकाप्नभुक्तिः प्रत्येकस्थोपवासवतविहितविधिच्छेदनार्थं करोति । यः कौटिल्यं व्रतस्थो नियमितकरणो ज्ञातधर्माक्षरमो.. मिथ्यात्वं तस्य पृष्ठि त्यजति ने सहसा भव्यसेनस्य यद्वत् ॥५५ . मझदेवी पूर्वभवे पूर्वविदेहेऽमरालके नगरे । वसुधारो वरवणिकस्तद्भार्या वसुमतो चाभूद ॥५६ है ॥४७॥ जो *अण्डज, बोण्डज, रोमज, चमंज और वल्कलज इन पांचों प्रकारके वस्त्रोंका परिहार करके खूणोंके चेलको ग्रहण करता है, वह यति कहा जाता है ।।४८॥ जो मन, वचन.और कायसे इन्द्रियोंका निरोध करता है, और विषय-कषायसे रहित होता है, वह ऋषि कहा जाता है ॥४९॥ जो महात्मा मोहनीय कर्मसे व्याप्त नहीं होता और नित्य ही कायक्लेश सहन करनेमें तत्पर रहता है, वह अनगार कहा जाता है ॥५०॥ जिसने भावसे पाँच प्रकारका संसार छोड़ दिया है और जो सदा अपने आत्माकी रक्षा करता है, वह योगोन्द्र कहा जाता है ॥५१॥ जो. साधु स्पर्धाको धारण करता हुआ महातपस्वीजनोंके तपके सदृश तपको करता है और अपने मनसे कायको नहीं छोड़ता है तो वह अन्य भवमें वेश्या होता है ॥५२।। जो. पवनंजय.राजाकी प्रियतमा अंजना सुन्दरी थी और जो स्वयं लावण्यविशेषतासे मुक्त रूपको धारण करती थी, पूर्वभवमें जिनदेवको प्रतिमाको स्थानान्तर करनेके पापकर्मसे उसी अंजनाको उसके पतिने निष्ठुरतासे उत्पन्न हुए क्रोधसे कुछ दिनों तक छोड़ दिया था ॥५३॥ देवोंके सदृश जिस लक्ष्मणके द्वारा युद्धमें रावणं मारा गया, वह लक्ष्मण हरि (नारायण) पूर्वभवमें बाँधे गये निदानसे नरकमें गया ॥५४॥ जो सौवीर (काजी) का आहार करता है, वस्तु मात्रका त्यागी (निर्ग्रन्थ) है, जिसके सर्वरसोंका त्याग है, जो प्रतिदिन एक अन्नका भोजन करता है, और जो कर्मोके छेदन करने के लिए प्रत्येक पर्वमें उपवास व्रत विधान करता है, जिसने अपनी इन्द्रियोंका नियमन किया है और जो व्रतमें स्थित होकर, धर्म तथा इन्द्रियोंके विषय रागका ज्ञाता होकर भी कुटिलताको करता है, उसकी पीठको मथ्यात्व भव्यसेनके समान सहसा नहीं छोड़ता ॥५५॥ मरुदेवीका जीव पूर्वभवमें पूर्वविदेहके मरालक नगरमें वसुधार नामक श्रेष्ठ वणिक्की वसुमती नामको स्त्री. थी। उसने एक बार अण्डज-रेशम, कोशा आदिसे उत्पन्न । बोंडीसे उत्पन्न रुईके वस्त्र । रोमज-ऊनी वस्त्र । चर्मज-चमड़ेसे बोवस्कर वल्कलज-सन, पाद आदिसे बने वस्त्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy