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________________ २१२ श्रावकाचार-संग्रह सा चैकदा मुनीनां दानमदाच्छिथिलभावेन । दानादाविजिनाम्बा शिथिलायुगलं समोत्पन्ना ॥५७ अज्ञात भाजन- कुतक-जलार्द्रपात्रं प्रातःक्षणेऽगलितनीरमयोग्यपुष्पम् । तक्रं विनद्वयगतं दधि चारनालमेते भवन्ति नितरां किल मद्यदोषाः ॥५८ अज्ञातकं फलमशोषितशाकपत्रं पूगीफलानि सकलानि च हट्टचूर्णम् । मालिन्यर्सापरपरीक्षितमानुषाणामेते भवन्ति नितरां किल मांसदोषाः ॥५९ लालाभिः कृमिकीटकैर्मधुकरीश्रेणीभिरार्वाजतं विण्मूत्रं मधुपोरकं (?) पलरसैर्यत्प्रोच्यते तन्मधु । तत्पापं मधुविन्दुवत्तदशने प्रायेण सञ्जायते भग्ने द्वादशपत्तने सति महद्यत्पापमुत्पद्यते ॥ ६० रात्रिभोजनमिच्छन्ति सेवते दिनमैथुनम् । कुर्वन्ति ये मषीभेदं भाषते कूटसाक्षिणम् ॥६१ प्रस्थकूटं तुलाकूटं करकूटं वदन्ति ये । मया कृतमिदं काव्यमिति जल्पन्ति येऽधमाः ॥६२ स्वकीयं वर्णनं कृत्वा परं निन्दन्ति ये नराः । चारित्रेण विना सद्यस्तेषां शुद्धिर्न दृश्यते ॥ ६३ जीवोऽध्वगपदे भग्नः कर्मप्रकृतिकण्टकः । न निःसरति चारित्रनखापहरणं विना ॥६४ निद्राहास्यवचो गतिस्खलनता मूर्च्छा महाजल्पना व्यामोहप्रमदप्रमादकलहस्नेहप्रणाशभ्रमाः । धूम्र्मामौनविचारहानिविकला प्रासङ्गकामातुरा भृङ्गी सप्तदशप्रदोषजननी कैः पण्डितैः सेव्यते ॥ ६५ शिथिल भावोंसे मुनियोंको दान दिया, उस दानके फलसे वह आदि जिन ऋषभदेवकी माता होकरके भी शिथिल होती हुई युगलियोंके साथ उत्पन्न हुई ।।५६-५७॥ अज्ञात भाजन, कुतक्र ( दुर्गन्धित छांछ), अज्ञात पुरुषके जलादिके पात्रसे जलपान करना, अगालित जल पीना, अयोग्य ( त्रसजीव युक्त और साधारण ) पुष्प - भक्षण, दो दिनका छाँछ और दही खाना, तथा आरनाल (काँजी) खाना, ये सब नितरां (अतिभारी) मद्य - पान जैसे दोष हैं अर्थात् मद्यत्यागके अतिचार हैं ||५८|| अजान फल, विना शोघे हुए शाकपत्र, सभी पुंगीफल (सुपारी आदि), बाजारके बने हुए चूर्ण आदि, मलिन, दुर्गन्धयुक्त और अपरीक्षित मनुष्योंका घी, इनका खाना मांस त्यागके बहुत बड़े अतिचार हैं ||१९|| मधुको उत्पन्न करनेवाली मधु-भक्षिकाओंकी वमन की गई लारसे उत्पन्न किया गया, कृमि-कीटकोंसे, और उनके विष्टा - मूत्रसे युक्त, मधुपान करनेवाली मक्खियोंके अंडोंके मांसके रससे जो पैदा किया जाता है, वह मधु कहलाता है । भावार्थ - मधुमक्खियाँ नानापुष्पोंके रसको तो लाती हैं, किन्तु विष्टा, मांस और सड़ी-गली वस्तुपर भी बैठकर उसका भी रस ग्रहण करती हैं और फिर उसे ही अपने छत्तेमें आकर वमन करती हैं, वह संचित वमन ही मधु है । उसकी एक बिन्दुके खानेपर प्रायः इतना अधिक पाप उत्पन्न होता है, जितना कि बारह नगर विनाश करनेपर महान् पाप उत्पन्न होता है || ६०|| जो अधम पुरुष रात्रिमें भोजनकी इच्छा करते हैं, दिनमें मैथुन करते हैं, मषी-भेद करते हैं, अर्थात् स्याही कलमसे झूठे दस्तावेज आदिको लिखते हैं, झूठी साक्षी ( गवाही) देते हैं, नापने के पात्र और तोलनेके बांट आदि होनाधिक रखते हैं, कर कूट बोलते हैं, अर्थात् तौलते समय हाथकी कुशलतासे होनाधिक तौलकर उसकी संख्याको कुछ की कुछ बोलते हैं । जो दूसरेके द्वारा रचे और लिखे गये काव्यको 'यह मैंने रचा है, या मैंने किया' इस प्रकार बोलते हैं और जो मनुष्य अपनी प्रशंसा या महत्ताका वर्णन कर दूसरेकी निन्दा करते हैं, ऐसे पुरुषों की शुद्धि चारित्रके बिना सद्यः सम्भव नहीं दिखाई देती है, अर्थात् चारित्र - पालन करनेपर ही उनकी उक्त पापोंसे मुक्ति सम्भव है, अन्यथा नहीं ||६१-६३ || मार्गपर चलते हुए जीवको लगा हुआ कर्मप्रकृतिरूप काँटा चारित्ररूपी नखापहरण ( नखोंको काटनेवाली नाहनी ) के बिना नहीं निकलता है ॥६४॥ निद्रा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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