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________________ योच्छिष्टेन घृतादिना सह घृताद्यं सत्करोत्याकुला देवानामनिवेद्य या कदशनं शुद्धान्नमाभाषते । डिम्भानां न करोति छित्तमशुभ' या भोजनं कुर्वतां तस्या जन्मनि जन्मनि प्रभवति प्रायेण चेटीक्रमः ॥ मलिनवचो - मलिन मनोमलिनशरीरैश्व सङ्घवात्सल्यम् । यो स्त्रीपुंसौ कुरुतस्तौ मालिन्यं कुलं यातः ४० नयशास्त्रं जानन्नपि जैनागमवेदकोऽपि यः पुरुषः । व्यवहारं चोरयति प्रभवति गथे कृमिः सोऽर्थी ४१ यः परधर्मं कथयति नात्मचित्ते प्रबोधमुपनयति । सञ्जायते स पापी भवे भवे नीचकुलमयते ॥४२ परिलिप्तपङ्कहस्तो गोपच रोड जय ज्जिनेशादीन् । स च करकण्डनामा नृपतिरभूदित्युपाख्यानम् ॥४३ रूपवती पूर्वभवे चकार चित्ते मुनीश्वरावज्ञाम् । सा सीता सञ्जाता सत्यपि लिप्ता कलङ्केन ॥४४ Satara fife गर्वान्धिता पूर्वभवान्तरे या । सा द्रौपदी प्राप कचापनोदं दुःशासनाद् भीमसमीपसंस्था ॥४५ मुनेः समाधियुक्तस्य या घत्ते वृत्तखण्डनम् । राज्यातिखण्डनां सेति पुरा राजीमती यथा ॥४६ आवश्यकैः षभिरुपात्तंघर्मो महाव्रतैः पञ्चभिरुत्तमश्च । एकादशाङ्गां प्रतिमां दधानो यः स्यान्मुनीन्द्रो भणितो बुधेन ॥४७ है ||३८|| जो स्त्री उच्छिष्ट (जूठे ) घी आदिके साथ अच्छे घी आदिको मिलाती हैं, जो आकुलव्याकुल होकर और देवोंको नैवेद्य निवेदन नहीं करके स्वयं भोजन करती है, जो कदन्न (खोटे एवं सर्दोष अन्न) शुद्ध अन्नं कहती है, जो अशुभ भोजन करनेवाले बालकोंकी शुद्धि नहीं करती है, उसके जन्म-जन्ममें प्रायः चेटी-क्रम अर्थात् दासी होने की परम्परा चलती रहती है ॥ ३९ ॥ जो स्त्रीपुरुष मलिन वचनोंसे मलिन मनसे, और मलिन शरीरसे. संघका वात्सल्य करते हैं अर्थात् खोटे मृन-वचनकायसे, संघ (साधर्मी, बन्धुओं) को खिलाते -पिलाते हैं, वे दोनों ही स्त्री-पुरुष, मलिन (नीच) - कुलको प्राप्त होते हैं ॥१४०॥ न्याय-नीतिके, अथवा नय विषय शास्त्रोंको जानता हुआ भी और नामका वेत्ता होकरके भी जो पुरुष व्यवहारको चुराता है, अर्थात् अपने व्यवहार-सम्बन्धी कर्तव्यका पालन नहीं करता है, वह स्वार्थी विष्टा में कीड़ा पैदा होता है ||४१|| जो पुरुष पर ( अन्य मत ) के धर्मको, अथवा दूसरेके लिए धर्मको कहता है और स्वयं अपने चित्तमें प्रबोधको प्राप्त नहीं होता है, वह भव-भवमें नीचकुलको प्राप्त होता है ||४२॥ पंक (कादा- कोचड़) से लिप्त हस्तवाले ग्वालेके जीवने जिनदेव आदिकी पूजा की थी, वह इस भवमें करकण्डु नामका राजा हुआ, जिसके हाथ खुजलीको खुजाते रहते थे, यह उसका कथानक प्रसिद्ध है ||४३|| सीता जीवने पूर्वभवमें रूपवती होनेके कारण मुनीश्वरकी अवज्ञा की थी, इस कारण इस भवमें सभी होते हुए भी वह कलङ्कसे लिप्त हुई, अर्थात् उसका लोकमें अपवाद फैला ॥४४॥ " heath पूर्व भव जीव चित्रवतीने पूर्व भवान्तरमें गर्वसे अन्धों होकर मुनिराजकी निन्दा की थी उसके फलसे वह द्रौपदी इस भवमें भी मके समीपमें स्थित होनेपर भी दुःशासनसे केशोंके अपकर्षणको प्राप्त हुई, अर्थात् दुःशासनने उसे चोटी पकड़ कर खींचा ।।४५ ।। जो स्त्री समाधियुक्त मुनिके चारित्रको खण्डने करती है, वह पूर्व भवमें राजीमती समान राज्यके भंगको प्राप्त होतो है ॥४६॥ जो छहों आवश्यकोंके और पांचों महाव्रतोंके साथ 'उत्तम धर्मको पालन करता है, और ग्यारह अंगवाली प्रतिमाको धारण करता है, वह ज्ञानी जनोंके द्वारा मुनीन्द्र कहा जाता १० . पवित्रतमम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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