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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २०९ पठतु शास्त्रसमूहमनेकधा जिनसमर्चनमर्चनतां सदा। गुरुनतिं कुरुतां धरतां व्रतं यदि शमो न वृथा सकलं ततः ॥२९ यद् यद् वस्तुनिषिद्धं जैनागमवेदनिपुणेन । तद तद् वस्तु निवार्य भव्येन ज्ञाततत्त्वेन ॥३० वार्ता निष्ठीवनं श्लेष्मो जृम्भणं कोपकर्तृता । कृपणत्वं कदर्यत्वं क्लीबत्वं मलिनात्मता ॥३१ एते दोषा विधीयन्ते मुनिभुक्तिक्षणे यया। सा याति नरकं घोरं पुराऽमृतवती यथा ॥३२ या दालिवर्तनपदादिपदे न दक्षा या रन्धने न निपुणा परिपाककाले । या देहशौचमविधाय ददाति दानं या भाण्डभाजनशुचीकरणे न शुद्धा ॥३३ या पर्वणि क्षपति कङ्कशिखां शिरोन्तं याऽनचिते सति जिने कुरुतेऽन्नपानम् । या भोगभुञ्जनकृते नियमं निहन्ति सा नायिका भवति कर्मकरी भवाब्धौ ॥३४ या परस्त्रीषु दूतत्वं विधत्ते लोभपूरिता । या हरेत्परवित्तानि या परन्यासहारिका ॥३५ पालयन्ती व्रतं तीव्र सत्यव्रतसमन्विता । ब्रह्मचर्य समाधाय क्रियाकल्पपरायणा ॥३६ एवंविधापि या नारी कषायैर्वेष्टिता भवेत् । न त्यजेत्पुद्गलावतं सा संसारपतिव्रता ॥३७ आत्मनाथं परित्यज्य परनाथाभिलाषिणो । असत्या जायते या स्त्री सा चाण्डालवजं भवेत् ॥३८ है और जीव-रक्षा नहीं है, स्त्री पर्याय उसका पीछा नहीं छोड़ती है, जैसे कि पूर्वकालमें वर्धमान निद्यसाका स्त्रीपर्यायने पीछा नहीं छोड़ा था ।' (?) ॥२८॥ मनुष्य यदि अनेक प्रकारसे शास्त्रोंका समूह पढ़े, सदा जिनपूजन करे, गुरुजनोंको नमस्कार करे और व्रतोंको धारण भी करे, परन्तु यदि उसके शमभाव नहीं है, अर्थात् कषाय शान्त नहीं हैं, तो सभी वृथा है ॥२९॥ जो जो वस्तु जैनागमके ज्ञाता निपुण पुरुषोंने निषिद्ध कहा है वह तत्त्वज्ञ भव्यपुरुषको निवारण करना चाहिए ॥३०॥ जो स्त्री मुनिके भोजनके समय वार्तालाप, निष्ठीवन, श्लेष्म-क्षेपण करती है, (जंभाई लेती है) और क्रोध करती है, कृपणता, कदर्यता (कंजूसी), क्लीबता (हीनभावना) और मलिनता रखती है, वह घोर नरकको जाती है,जैसे कि पूर्वकालमें अमृतवती रानी मुनिसे घृणा करनेसे नरकमें गयी है ॥३१-३२॥ जो भोजन-पाकके समय दाल-भात आदिके राँधने में दक्ष नहीं है, नाना प्रकारके व्यंजन, पकवान आदिके बनाने में निपुण नहीं है, जो देहकी शुद्धि किये विना दान देती है, जो भाँड वर्तनादिके संमार्जनमें कुशल नहीं है, जो चतुर्दशी आदि पर्वके दिन शिरपर कंकपत्र लगाती और चोटो संवारती है, जो जिन-पूजनको किये विना ही खान-पान करती है, जो भोगोंको भोगनेके लिए अपने व्रतोंके नियमको भंग करती है, वह स्त्री संसार-समुद्रमें कर्मकरी दासी होती है ।।३३-३४।। जो स्त्री लोभसे परिपूरित (वशीभूत) होकर दूसरी स्त्रियोंमें दूतीपेनका काम करती है, जो दूसरेका धन हरण करती है और दूसरेकी धरोहरको हड़प जाती है वह स्त्री सत्यव्रतसे संयुक्त भी हो, उग्रव्रतको पालती हो, ब्रह्मचर्यको धारण कर क्रिया कलापमें परायण भी हो, इस प्रकारकी जो स्त्री यदि कषायोंसे वेष्टित है तो वह संसारमें पतिव्रता होकरके भी पुद्गलपरावर्तकालतक संसारसे नहीं छटती है ॥३५-३७।। जो स्त्री अपने स्वामीको छोडकर परस्त्रीके स्वामीकी अभिलाषा करती है, वह असली होनेके पापसे चाण्डालके कुलको प्राप्त होती १. इस कथानकका भाव समझमें नहीं आया है ।-सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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