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________________ श्रावकाचार-संग्रह सितपार्क कुर्वाणा पक्वान्नाय गृहस्य या नारी। घृतगुडलिप्तं हस्तं मुश्चति तत्रैव कुत्रव ॥१७ यत्रैव मक्षिकाद्या घ्राणेन्द्रियतः स्पृशन्ति ये जीवाः । तेषां मरणं विहितं तत्पापं कस्य सञ्जातम् ॥१८ तस्या नरके ब्रूडनमितरनिगोतेऽथ संभवः सततम् । एकेन्द्रियत्वमनिशं संभवति जिनागमेनोक्तम् ॥१९ अषिकुरुते तक्रस्थं रविकास्थं (?)भाजनस्थमुवरस्थम् । या नवनीतं सद्यः परिपाकं नयति न च वह्नौ ॥२० तस्या बन्धनताडनमारणभेदाविदुःखमायाति । शूलारोपणकरणं यन्त्रेषु निपीलनं सततम् ॥२१ कन्दमूलानि हेयानि प्रहेयं शाकपत्रकम् । फलानि पञ्च हेयानि न ग्राह्य कुसुमपञ्चकम् ॥२२ धावकाणां कुले योग्यं यद्वस्तु प्रोच्यते बुधैः । तद्वस्तु श्रावकैः ग्राह्यं विक्रयं च निरन्तरम् ॥२३ वर्षाकाले न गमनं क्रियते धावकोत्तमैः । आत्मशस्त्रं न दातव्यं वक्तव्यं कस्य मर्म न ॥२४ जीवाहारो न संग्राह्यो जीवो जीवस्य रक्षकैः । निन्दा कस्य न कर्तव्या याथातथ्यं वदेबुधः ॥२५ धर्मकार्यवशात् प्रोच्यमसत्यं च निरन्तरम् । साक्षिणस्तत्र कर्तव्या असत्याः श्रावकोत्तमैः ॥२६ धर्मकार्यवशान्मृत्युर्जायते देहपीडनम् । तत्सर्व तेन योगेन कर्मणां निर्जरा भवेत् ॥२७ यस्याश्चित्ते नास्ति सर्वज्ञदेवो जैनं तत्त्वं सद्गुरुर्जीवरक्षा। तस्याः पुष्टिं मुञ्चति स्त्रीभवो नो पूर्व यवलुमानिधसायाः (?) ॥२८ भाव न रखकर अन्नादिको पीसती है, वह स्त्री इस संसारमें कूकर, भैंसा, साँप, सूकर और गर्दभोंकी सभी नीच योनियोंको प्राप्त करती है ।।१६।। जो स्त्री पकवान बनानेके लिए मिश्री. पाकको या शर्करा पाकको (शक्कर गालकर बचे मैलको) या घी-गुड़से लिप्त हाथको घरके भीतर जहां कहीं भी छोड़ता है (धोतो है), जहाँपर कि घ्राणेन्द्रियसे आकृष्ट होकर मक्षिका आदि जीव उसे स्पर्श करते हैं और उनका मरण होता है, उसका पाप किसे होता है ? अर्थात् उसका पाप भी उसी स्त्रीको लगता है ॥१७-१८|| उस पापसे उस स्त्रीका नरकमें डूबना होता है, अथवा इतर निगोदमें निरन्तर जन्म होता है, अथवा निरन्तर एकेन्द्रियपना सम्भव है, यह जिनागममें कहा गया है ।।१९।। जो स्त्री तक (छांछ) में स्थित, या कांसे (?) आदि किसी भाजनमें रखे हए नवनीत (लोणी) को उदरस्थ करती है, किन्तु उसे तत्काल अग्निपर पकाती नहीं है, उसको बन्धन, ताड़न, मारण, छेदन-भेदन आदि दुःख प्राप्त होते हैं, उसे शूलोपर चढ़ाया जाता है और सदा कोल्हू आदि यन्त्रोंमें पेला जाता है ।।२०-२१।। कन्दमूलोंको छोड़ना चाहिए, पत्तोंवाली शाक नहीं खानी चाहिए, पांचों क्षीरीफल हेय हैं और केतकी, नीम आदि पांच जातिके पुष्प ग्राह्य नहीं हैं ॥२२।। जिस वस्तुको ज्ञानियोंने श्रावकोंके कुलमें ग्रहण करनेके योग्य कहा है, वही वस्तु सदा ग्राह्य और विक्रेय है अर्थात् खरोदना और बेंचना चाहिए ।।२३।। उत्तम श्रावकोंको वर्षाकालमें गमन नहीं करना चाहिए, अपने अस्त्र-शस्त्र दूसरोंको नहीं देना चाहिए और किसीका मर्म (रहस्य या गुप्त बात) दूसरेसे नहीं कहना चाहिए ॥२४॥ जीवकी रक्षा करनेवाले श्रावकोंको किसी जीवका बाहार और आहारके लिए कोई जीव नहीं ग्रहण करना चाहिए। किसीकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिए और समझदार पुरुषको सदा यथातथ्य बोलना चाहिए ॥२५॥ धर्म-कार्यके वशसे निरन्तर बसत्य बोलना चाहिए, किन्तु इस विषयमें उत्तम श्रावकोंको असत्य (?) साक्षी कर लेना चाहिए ॥२६॥ धर्मकार्यके वशसे यदि मृत्यु होती है, या शरीरको पीड़ा पहुँचती है तो उसके योगसे उसके कर्मोकी निर्जरा होती है ।।२७। जिसके चित्तमें सर्वज्ञदेव नहीं हैं, जैनतत्त्व नहीं है, सद्-गुरु नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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