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________________ २०७ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार यत्रत्यं विमलं गृहीतमुदकं तत्र क्षिपेनादराव या स्त्री जीवदयान्विता गुणवतो सजायते सेदृशी। दुर्गन्धा मलिना कुटुम्बरहिता वारिद्रिणी रोगिणी । नि:श्रीका विधवा क्षुधातुरवपुः पापात्मिका नामिका ॥१० घृतस्य तैलस्य जलस्य योगतो भवन्ति जीवाः किल चर्मसंस्थिताः । रवोन्दुकान्तैरिव वह्नि-पुष्करे सर्वविदा केवलिनेमिभाषितम् ॥११ या देवार्चनमाचरेद् ऋतुमती गेहस्य वस्तु स्पृशेत् । कन्दर्पाभिमता चतुर्थदिवसे स्नानस्य शुद्धि विना। सा दुःखं सहते सुतं न लभते प्राप्नोति दौर्भाग्यतां बध्नाति प्रथितं नपुंसकपदं वन्ध्या भवेन्नान्यथा १२ यस्याः शुद्धिर्नास्ति चित्ते न वस्त्रे नो भाषायां नैव गेहे न देहे । सा चेद् धत्ते पूजनं देवतादौ तस्या नार्यः गर्भपातस्य दोषः ॥१३ सन्मार्जयित्वा क्रियते न खण्डनं क्षुधाकुलव्याकुलया तया स्त्रिया। साऽनन्तसंसारमटत्यसारतां कुष्टेन देहावयवेषु कृत्यते ॥१४ गृहस्य सन्मार्जनमादधाना जीवेषु दृष्टि न दधाति वामा। या संसृति पञ्च विधां भ्रमित्वा सा दुर्गतेः प्राधुणिको भवेच्च ॥१५ मनसि वपुषि वाचि जीवरक्षामकृतवती विदधाति पोषणं या। शुनकमहिषसर्पशूकराणां भवमिह सा लभते सरासभानाम् ॥१६ और गुरुको भक्ति करता है, वह पहिले सांसारिक सुख पाता है और तत्पश्चात् मोक्षको प्राप्त करता है ॥९॥ जो स्त्रो जीवदयासे युक्त और गुणवती है, उसे जहाँका जल ग्रहण किया हो उस निर्मल जल (जिवानी) को वहीं आदरसे छोड़ना चाहिए । जहाँ कहीं निरादरसे नहीं फेंकना चाहिए । जो जिवानोको निरादरसे फेंकती है वह भव-भव में दुर्गन्ध, मलिन, कुटुम्ब-रहित, दरिद्रिणी, रोगिणी, लक्ष्मी-रहित, विधवा, क्षुधातुर शरीरवाली, पापिनी इत्यादि नामोंको धारण करनेवाली होती है ॥१०॥ धोके, तेलके और जलके योगसे चमड़ेमें स्थित जीव उत्पन्न होते हैं । जैसे सूर्यकान्तमणिके संयोगसे अग्नि और चन्द्रकान्तमणिके संयोगसे जल प्रकट होता है, ऐसा सर्ववेत्ता केवलो भगवान्ने कहा है ॥११॥ जो रजस्वला स्त्री देव-पूजन करे, घरकी वस्तुका स्पर्श करे और चौथे दिन स्नानकी शुद्धिके विना काम-वासनासे अभिभूत होती है अर्थात् रजस्वलाकी अवस्था में ही पतिके साथ सहवास करती है, वह पुत्रको नहीं पाती हैं, प्रत्युत दुःख सहती है, दुर्भाग्यको पाती है और प्रथित (दीर्घकालतक भोगे जानेवाले) नपुंसकवेदको बाँधती है, अथवा बन्ध्या होती है, यह कथन अन्यथा नहीं हो सकता ॥१२॥ जिस स्त्रीके चित्तमें शुद्धि नहीं है, न वस्त्रोंमें शुद्धि है, न वचनमें शुद्धि है, न घरमें शुद्धि है और न देहमें शुद्धि है, वह स्त्री यदि देवादिके विषयमें पूजन करती है तो उस स्त्रीके गर्भपातका दोष प्राप्त होता है ॥१३॥ जो स्त्री भूखसे आकुल-व्याकुल हो सन्मान करके धान्यादिका खण्डन (उखली में कूटना) नहीं करती है, वह स्त्री असारताको प्राप्त होकर अनन्तकालतक संसारमें परिभ्रमण करती है और कुष्ट (कोढ़) रोगसे शरीरके अंगोंमें गलन पाती है अर्थात् कोढ़से उसके अंग गल-गलकर छिन्न-भिन्न होते हैं ॥१४|| जो स्त्री घरका सन्मार्जन करती हुई जोवोंपर दृष्टि नहीं रखती है, वह पंचपरावर्तनरूप संसारमें परिभ्रमणकर दुर्गतिकी अतिथि होती है अर्थात् नारकी आदि होती है ।।१५।। जो स्त्री मनमें, शरीरमें और वचनमें जोवरक्षाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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