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________________ श्री अम्रदेव-विरचित व्रतोद्योतन-श्रावकाचार प्रणम्य परमब्रह्मातीन्द्रियज्ञानगोचरम् । वक्ष्येऽहं सर्वसामान्यं व्रतोद्योतनमुत्तमम् ।।१ भव्येन प्रातरुत्थाय जिनबिम्बस्य दर्शनम् । विधाय स्वशरीरस्य क्रियते शुद्धिरुत्तमा ॥२ परिषाय धौतवस्त्राण्यादाय' सच्चन्दनानि पुष्पाणि । तेन युगान्तरदृष्टया द्रष्टव्या जीवसङ्घाताः ॥३ मिनभवनं तेन तदालोकयता त्रिप्रदक्षिणं कृत्वा । आरम्या जिनपूजा श्रुतपूजा मुनीन्द्रपूजा च ॥४ व्रतसारः श्रोतव्यो जैनागमवेदकस्यामुखवचनात् । यमनियमसंयमस्थितिरिहपरलोकार्थिना तेन ॥५ सागारमनागारं धर्म धर्मोपदेशको वदति । सागारं भव्यानां दिगम्बराणामनागारम् ॥६ देवगुरुतत्त्वधर्म यो मनुते तस्य जायते सिद्धिः । तस्य च मुक्तिर्भवति प्रकाशयति केवलज्ञानम् ॥७ त्रिकालसामायिकमुत्तमस्य वेयकस्य स्थितिमातनोति । सामायिकोच्चारपदं न यस्य स उच्चरेत् पञ्चनमस्कृति च ॥८ भव्येन स्तवनं विषाय नियमं संशोध्य सामायिकं । स्तुत्वा पञ्चनमस्कृति स्वहृदये धृत्वा च चैत्यस्तुतिम् । कृत्वा पञ्चगुरून् प्रणामरचिता सिद्धस्य भक्तिस्तथा। शास्त्रस्यापि गुरोश्च येन लभते सोल्याय मोक्षं पुनः ॥९ ... अतीन्द्रिय केवलज्ञानके विषयभूत परमब्रह्मको नमस्कारकर मैं सर्वलोगोंके लिए समानरूपसे आचरण करनेके योग्य उसम व्रतोद्योतनको कहूँगा ॥१॥ भव्यजीवको प्रातःकाल उठकर और जिनबिम्बका दर्शन करके अपने शरीरकी उत्तम शुद्धि करनी चाहिए ॥२॥ पुनः धुले वस्त्रोंको पहिनकर और उत्तम चन्दन पुष्पादि लेकर चार हाथ भूमिको शोधते और जीव-समूहको देखते हुए जिनमन्दिरको जाना चाहिए ॥३॥ वहाँ जाकर और तीन प्रदक्षिणा देकर जिनपूजा, श्रुतपूजा और मुनिजनोंको पूजा आरम्भ करनी चाहिए ॥४॥ तत्पश्चात् जेनसिद्धान्तके ज्ञाता पुरुषके मुखसे कहे गये वचनोंसे व्रतोंका सार सुनना चाहिए। तथा परलोकमें आत्म-हितके उस इच्छुक श्रावकको यम, नियम और संयमकी स्थिति (मर्यादा) स्वीकार करना चाहिए ॥५॥ धर्मके उपदेशक धर्म दो प्रकारका कहते हैं-सागारधर्म और अनगारधर्म। गृहस्थभव्योंके लिए सागारधर्मका उपदेश दिया गया है और दिगम्बर भव्यजीवोंके लिए अनगारधर्मका उपदेश है ।।६।। जो पुरुष देव, गुरु, धर्म और तत्त्वका मनन करता है, उसके सिद्धि प्राप्त होती है, उसके केवलज्ञान प्रकाशित होता है और उसीके मुक्ति होती है ॥७॥ त्रिकाल सामायिक (मिथ्यादृष्टि जीवको भी) उत्तम वेयककी स्थितिको प्राप्त कराती है। जिस पुरुषके सामायिक पाठका उच्चारण सम्भव न हो, वह पञ्चनमस्कारमन्त्रका ही सामायिकके समय उच्चारण करे ॥८॥ जो भव्यजीव जिन-स्तवन करके, नियम ग्रहण करके, सामायिककी शुद्धि करके, पञ्चपरमेष्ठीकी स्तुति करके, पंचनमस्कारमन्त्रको हृदयमें धारण करके, चैत्यस्तुतिको करके, नमस्कार युक्त सिदभक्ति करके, तथा श्रुतकी भक्ति १. वस्त्रे बाबाय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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